होली, पलाश के फूल और भारत के गांवों में पलनेवाले बचपन का गहरा नाता रहा हैं. होलीका दहन के उपरांत आने वाली सुबह बच्चे पलाश के फूलों से बने रंगों से एक दूजे को भीगाते थे. वही तो रंगोत्सव मनाने का सबसे आर्गेनिक तरीका था.
गडचिरोली जिले के भामरागड़ के घने जंगलों मे बसें एक छोटे से गांव के हम बच्चे प्रायः एक सप्ताह पूर्व से ही रंगपंचमी की तैयारी मे लग जाते थे. उसके लिए जंगलों से पलाश के फूलों को इकट्ठा करना और उनसे रंग रंग बनाना भी हमारे लिए एक उत्सव ही था. हरे ताजे बाम्बू से बनी पिचकारी रंग मारने का हमारा साधन होती थीं.
पलाश के वे फूल, प्रदुषणरहित प्रकृति और बचपन का वह मन मस्तिष्क, बाम्बू की पिचकारी और बचपन के साथी... होली के उत्सव पर वह सारी यादें ताज़ा हो जाती हैं.
जीवन पथ पर चलते हुए
जब, मैं किसी चौराहे पर पहुंच जाऊ
और अंतर्मन मे चल रहा हो द्वंद्व
तब, हे शक्तिमान इश!
मुझे तुम अपना अनुग्रह पात्र समझकर
सही राह चुन सकने की मनीषा देना.
निराशा का कुहासा
जब मन-मस्तिष्क की शक्तियों को रोकने लगे
जब मानवता पर आस्था मेरी डगमगाने लगे
तब, हे कृपालु प्रभू!
मुझे थोड़ी दूर ही सही
देख सकने योग्य दृष्टि देना.
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