Monday 17 May 2021

मेरे मित्र जनमेजय का असामयिक निधन

 

ऐसे जीवन भी हैं जो जिये ही नहीं

जिनकों जीने के पहले ही मौत आ गई!

फूल ऐसे भी हैं जो खिले ही नहीं

जिनको खिलने के पहले फिज़ा खा गई!

 

मेरा मित्र जनमेजय भी जिया ही नहीं. उसके जीने के पहले ही इस भयावह महामारी ने उसे उसकी पत्नी से,परिवार से,दोस्तों से, समाज से छीन लिया. 

जनमेजय से मेरा परिचय ज्यादा पुराना नहीं, तीन साढ़े तीन साल ही हमको मिलें हुए. पर समय कितना भी कम क्यों ना हो, उसके प्रती स्नेह दृढ़ हुआ था. उससे जब भी बात हुई लगा की मुझे और ज्यादा पढ़ने की आवश्यकता हैं. हमेशा ही लगा, एक तो मैं उससे उम्र से बड़ा हु, मेरे पास उससे भी बड़ी डिग्री हैं, और तो और मैं प्राध्यापक हु किन्तु चीजों कों उससे बहुत कम जानता हु. विशेषतः भारतीय दर्शन पर उसकी समझ से मैं ज्यादा ही प्रभावित था. उसी के कारण वैदिक कालीन राजा जनमेजय के बारे मे पढ़ना हुआ.


संघ कार्यकर्त्ता के नाते हमारा परिचय हुआ. जनमेजय मेरे गृह जिले गडचिरोली के अहेरी ब्लॉक मे विस्तारक रहा था. मेरे साथ प्रायः मराठी मे ही बात करता था.  लगभग 30-31 वर्ष का जनमेजय मूलतः हजारीबाग, झारखण्ड, गणित एवं भौतिक शस्त्र मे स्नातक, टाटा समाज विज्ञान संस्थान से स्नातकोत्तर की पढ़ाई, विदर्भ के यवतमाळ जिले मे भी संघ का दाइत्व. संघ से दाइत्व मुक्ति के बाद यूनिसेफ़, UNDP आदि सयुंक्त राष्ट्र संघ की एजेंसियों के साथ काम. इतनी अल्पायु मे जनमेजय के अनुभवों की विविधता के कारण उसका व्यक्तिव परिपक्व था.

आज दिन भर कुछ लिखकर चाय बनाने के लिए श्याम कों उठा ही था, हम दोनो के एक दोस्त का फ़ोन आया. प्रायः हम रात कों ही बात करते हैं. इस समय उसके फ़ोन कों देखकर कुछ अनहोनी की आशंका मन मे बनी. ना चाहते हुए भी यह भयानक आशंका सच निकली. जनमेजय हम सबको छोड़कर अनंत मे विलीन हो गया.

पूर्णतः विचलित, अनिश्चितता की गर्त मे मैं, उसकी पत्नी कों फ़ोन कैसे करू, कैसे सांत्वना दू! मेरे बहन जैसी शिवानी भाभी! जनमेजय और शिवानी भाभी के विवाह के पूर्व ही हमारा परिचय जनमेजय ने ही करवाया था. उनका भोला सा चेहरा कितना दुःखी होगा! कुछ ही महीनों पूर्व उनके पिताजी का भी स्वर्गवास करोना की वजह से ही हुआ था. कितना बड़ा दुःख का पहाड़ उनपर गिर पड़ा हैं यह सोचकर और अधिक विचलित हो जाता हु!


एक वर्ष पूर्व ही तो उनकी शादी हुई थी. जनमेजय मुझसे कहता रहा, भाऊ काशी आ जाओ. भोलेनाथ के दर्शन करते हैं. मैं जा नहीं सका, कोरोना के कारण वे दोनो भी दिल्ली नहीं आ सके. मैं अकेला, निशाचर रात कों याद आये तब जनमेजय कों फ़ोन करता रहा, वह भी बिना तक्रार देर रात तक मुझसे बात करता रहा, मिनटों नहीं घंटो तक! बहुतेरे विषयों पर सहमती, असहमत होने पर मैं जरा चिढ़ता. किंतु जनमेजय अपना शांत!

इतने मे थोड़ी व्यस्तता के कारण लम्बे समय से बात नहीं हुई थी. मेरे ब्रॉडकास्ट लिस्ट मे जनमेजय था. नियमितता से मेरी गतिविधियां, कभी कबार लिखें हुए ब्लॉग उसे व्हाट्सएप्प भेजता रहा. कुछ 10-12 दिन पूर्व उसका मैसेज आया, भाऊ मै बी. एच. यू. के ICU मे एडमिट हु. फ़ोन किया तो कहा की बात करने मे परेशानी होती हैं, व्हाट्सएप्प पर बात करते हैं. व्हाट्सएप्प पर कहने लगा की मै स्वयंसेवक हु, हमारा दिल बड़ा होता हैं, कुछ नहीं होगा, जल्द ही स्वस्थ होता हु, फिर फ़ोन पर बात करते हैं. दो तीन दिन  बाद मैसेज पर और बात हुई. अभी वह bipap मशीन पर था. पर एकदम पॉजिटिव बातें...अभी स्टेबल हु...4-5 दिनों मे नार्मल ऑक्सीजन सपोर्ट पे आऊंगा... फिर हॉस्पिटल से डिस्चार्ज... फिर घर पे रिकवर हो जाऊंगा. दो दिन पूर्व ही भाभी जी से बात हुई थी, जनमेजय स्टेबल हैं यह सुनकर बहुत अच्छा लगा था.

पर आज यह व्याकुल करने वली वार्ता! कुछ समय के लिए तो लगता की यह अफवाह हैं, जनमेजय ठीक ही होगा. परन्तु हमारे चाहने से थोड़े ही जनमेजय लौट आएगा!

हे ईश्वर इतना निष्ठुर तो मत बन. ऐसे फूल जो अभी तक ठीक से खिले ही नहीं, उन्हें ऐसे चुन चुनकर मत ले जा अपने पास. उनकी बहुत ज्यादा आवश्यकता यहां पर हैं.

ॐ शांती!

Sunday 16 May 2021

डॉ. राजेंद्र भारुड़, IAS से मिलें

डॉ. राजेंद्र भारुड़, स्वयं जनजाती समुदाय से आते हैं. वे वर्तमान मे महाराष्ट्र के नंदुरबार जिले के कलेक्टर के रूप मे नियुक्त हैं. उन्होंने कोरोना के पहली लहर से अनुभव प्राप्त कर दूसरी लहर के पूर्व ही अपने जिले मे ऐसी कुछ तैयारियां की जो कोरोना की इस दूसरी लहर से लोहा लेने मे बहुत कारगर साबित हुई.

अपने अनुभवों के बारे मे बताते हुए वे कहते हैं की अप्रैल के महीने मे उनके जिले 1100 से 1200 कोविड केसेस आते थे. हाल ही के दिनों मे वह अकड़ा 200 से 250 केसेस तक निचे आया हैं. उसके लिए उनकी लोकाभीमुख नीतियों को श्रेय देना होगा. एक प्रशासकीय अधिकारी चाहे तो अत्यंत कठीन परिस्थियों एवं अन्य अवरोधकारी शक्तियों के होते हुए भी बहुत कुछ कर सकता हैं. उसके लिए अपने दाइत्व के प्रती मानवीय संवेदनाओं का होना आवश्यक हैं. 

डॉ. भारुड़ ने आनेवाले समय की चुनौतियों को समय रहते ही अच्छी तरह से समझ लिया था. वे कहते हैं, पिछली कोरोना की लहर मे उनके जिले मे आरोग्य की सुविधाओं का अत्यंत अभाव था. परन्तु उन्होंने केवल शिकायत करते हुए निष्क्रिय बैठे रहने के बजाय विश्वभर मे चलते कोरोना महामारी के ट्रेंड्स पर ध्यान रखा. चुंकि वे खुद भी डॉक्टर हैं, (बतादे के उन्होंने GSMC मुंबई से MBBS की पढ़ाई की हैं) उन्होंने मेडिकल ऑक्सीजन की आवश्यकता को पहले से ही समझा. समय के रहते ही उन्होंने अपने जिले मे तीन ऑक्सीजन प्लांट लगवा लिये थे. सनद रहें की महाराष्ट्र के आदिवासी जिले नंदुरबार में पिछले साल के कोविड प्रकोप तक एक भी ऑक्सीजन प्लांट नहीं था. यह सब करने के लिए उन्होंने जिला विकास योजना कोष, राज्य आपदा प्रबंधन राहत कोष, कॉर्पोरेट सामाजिक जिम्मेदारी (CSR) से पैसे खड़े किए.

 डॉ. भारुड़ केवल ऑक्सीजन प्लांट लगाकर नहीं रुके बल्की उन्होंने उपलब्ध निधी का उपयोग करते हुए जिले मे अबुलेंस सेवाओं का भी जत्था खड़ा किया. इसके साथ उनके नेतृत्व मे नंदुरबार जिला प्रशासन ने केंद्रीकृत कोविड नियंत्रण कक्ष की स्थापना करना, वास्तविक समय मे जानकारी प्रदान करनेवाली अध्यतन वेबसाइट का निर्माण करना आदि नावाचारों का समावेष भी कोविड से लड़ाई मे किया. डॉ. भारुड़ कहते हैं की, बहुत सारी कॉर्पोरेट कम्पनियाँ सामाजिक जिम्मेदारी के माध्यम से CSR मदत निधी देना चाहती हैं. आवश्यकता हैं की हम उनतक पहुंचे.

डॉ. भारुड़ के अथक एवं नवाचार युक्त प्रयासों के कारण नंदुरबार जिले मे स्थित केवल 20 ऑक्सीजन एवं वेंटीलेटर युक्त बेड की संख्या वर्तमान मे 1200 बेड तक पहुंची हैं. उनके प्रशासन ने जिले मे स्तित सारे स्कूल, छात्रावास एवं धर्मशालाओं को आइसोलेशन केंद्रों मे परिवर्तित करते 7000 बेड्स का निर्माण किया हैं. इसीके साथ मे 50 कोरोना मरीजों के पीछे एक ऑक्सीजन नर्स को नियुक्त करते हुए नियमितता से उनके SPO2 पर ध्यान रखने का दाइत्व उनपर सौपा गया. इसके कारण किसी भी कोरोना रोगी का SPO2 का स्तर जब भी गिरने लगा, तुरंत उपचार देने मे देरी नहीं हुई. कोरोना के उपचार सम्बंधित इस रणनीती के कारण बहुत सारे मरीजों के जीवन बचाए जा सके. इसकी सफलता को देखते हुए महाराष्ट्र सरकारने 'नंदुरबार पैटर्न' को लागु करने के निर्देश सभी जिलों के प्रशासकीय अधिकारीयों कों दिए. केंद्र सरकारने भी डॉ. भारुड़ के कार्य की प्रशंसा की हैं.

डॉ. भारुड़ कहते हैं की किसी भी कार्य को सफलतापूर्वक करने के लिए संवेदनशीलता का होना आवश्यक हैं. चुंकि वे नंदुरबार जिले के ही ग्रामीण क्षेत्र से आते हैं, वहां के लोगों की समझ, संवेदनाओं से वे परिचीत हैं. उन्होंने नंदुरबार जिले मे शिक्षक एवं मुख्य अध्यापकों की सहायता से लोगों को कोरोना महामारी के सन्दर्भ मे सजग किया. उन्हें कोरोना के टिके के महत्व को समझाते हुए उनका टीकाकरण करवाया. परिणामस्वरूप नंदुरबार जिले मे कोरोना के फैलाव को नियंत्रण मे रखा जा सका.


डॉ. भारुड़ का जन्म नंदुरबार जिले के एक छोटे गांव मे हुआ. उनके जन्म के पूर्व ही उनके पिताजी का स्वर्गवास हुआ. उनके माताजीने अनेक कठनाईयों का सामना करते हुए, खेत मजदूरी करते हुए उन्हें बड़ा किया और पढ़ाया. उनकी 12 वी तक की पढ़ाई नवोदय विद्यालय मे हुई. सनद रहें की नवोदय विद्यालय, केंद्र सरकार द्वारा प्रत्येक जिले मे न्यूनतम एक की संख्या मे चलाए जा रहें गुणात्मक शिक्षा देनेवाले केंद्रीय विद्यालय जैसे शिक्षा संस्थान हैं. शिक्षा के आलावा छात्रों का निवास, भोजन, पुस्तके, कपडे आदि. सारी सुविधाएं केंद्र सरकार ही वहन करती हैं. कक्षा पाँचवी मे प्रतियोगिता परीक्षा के माध्यम से मेधावी छात्रों का चयन नवोदय विद्यालयों मे होता हैं. इन विद्यालयों मे पढ़नेवाले अनेक छात्र समाज के अनेक क्षेत्रों मे अनन्यसाधरन कार्य कर रहें हैं.

चिंता की बात यह हैं की नवोदय विद्यालयों का स्तर पिछले कई सालों से लगातार बिगड़ता जा रहा हैं. उनमे कई शिक्षक अस्थाई रूप से अभी पढ़ा रहें हैं. जो शिक्षक अपने भविष्य को लेकर चिंतित हो वह अपनी पूर्ण ऊर्जा विद्यार्थियों को पढ़ाने मे कैसे लगा पाएंगे? इसलए आनेवाले दिनों मे ऐसे विद्यालयों का स्तर मजबूत करने के साथ ही उनकी संख्यात्मक एवं गुनात्मक वृद्धि पर बल देने की आवश्यकता हैं. इसीके साथ नितिगत स्तर पर शिक्षा एवं आरोग्य इन दो बुनियादी सुविधाओं पर हमारे राष्ट्रीय एवं राज्यस्तरीय आर्थिक बजट बड़ा हिस्सा खर्चा करने की आवश्यकता हैं. इस घोर कोरोना महामारी के चलते कई बच्चे अनाथ हो चुके हैं. उनकी शिक्षा एवं लालन पालन का दाइत्व राज्य और हमारे समाज को उठाना ही होगा. इसके लिए नागरिक समाज को अपना दाइत्व निभाने के साथ ही केंद्र और राज्य सरकारों पर दबाव बनाना पड़ेगा. 

हमारे समाज के कुछ लोग आरक्षण का विरोध यह कहते हुए करते हैं की आरक्षण के कारण मेरिट का स्तर बिगड़ता जा रहा हैं. क्या यह लोग डॉ. भारुड़ के मेरिट पर भी सवाल खड़ा करेंगे? जिनपर सामंती मानसिकता का भुत अभी भी सवार हैं, शायद वे डॉ. भारुड़ जैसे मेधावी और लोकाभीमुख प्रशासकों की निंदा करने मे भी कोई कसर नहीं छोडेंगे. उनका कुछ नहीं किया जा सकता. आरक्षण नहीं होता तो शायद डॉ. भारुड़ नवोदय विद्यालय नहीं पहुँचते, डॉक्टर और IAS नहीं बनते.

Intelligence Quotient अथवा Emotional Quotient नहीं बल्की Emotional Intelligence Quotient की क्षमता रखनेवाले लोगों की आवश्यकता शाश्वत विकास के भाव पर आधारित समाज को हैं. हमारे शिक्षा संस्थानों मे एवं प्रशिक्षण अकादमियों मे इसी बात पर बल देने की आवश्यकता हैं. मेरिट मे आकर बड़े बड़े मेडिकल कॉलेजेस मे पढ़नेवाले कितने डॉक्टर्स ग्रामीण क्षेत्रों मे सेवा देने के लिए राजी होते हैं? ग्रामीण क्षेत्रों से आनेवाले डॉक्टर् ही प्राथमिक आरोग्य केंद्रों मे प्रायः सेवा देते हुए दिखाई देते हैं. डॉ. भारुड़ जैसी क्रियाशीलता अन्य जिलों के कलेक्टरों ने क्यों नहीं दिखाई? मेरिट अगर स्वयं तक ही सिमित एवं करियरिस्टिक बनकर रह जाए तो उसका क्या उपयोग?

सभी बच्चों मे डॉक्टर्, इंजीनियर, आय. ए. एस. आदि बनने की क्षमता होती हैं यह नहीं कहा जा सकता अथवा सभी को ऐसे अवसर प्राप्त नहीं होंगे. परन्तु क्या किसान की बेटी या बेटा केवल किसान ही बनकर रह जाए? क्या मजदूर अथवा मेहनतकश इंसान की संतान अपने माता पिता के व्यवसाय मे ही ठिठक कर रह जाए? अगर ऐसा होता हैं तो भविष्य की ओर बढ़नेवाले हमारे राष्ट्र की गती थम कर रह जाएगी. समाज और राष्ट्र विघातक ताकतें वंचित समाज घटकों कों अपने बेईमान इरादों के पूर्ती के लिए उपयोग मे लाएंगी.

मेधा या मेरिट किसी को भी विरासत मे मिलती हैं अथवा नहीं मिलती हैं ऐसा नहीं हैं. अंतर केवल इतना ही हैं हमारे समाज के कुछ घटक ऐतिहासिक कारणों से पिछड़ गए हैं. 'जो भाई भटके बिछड़े' हाथ पकड़ ले साथ चले' इसी भाव को लेकर हमें आगे बढ़ना होगा. तभी समतमूलक समाज निर्माण का हमारा राष्ट्रीय सपना पूर्ण होगा.

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

Saturday 8 May 2021

हमारे घनश्याम का चले जाना और नकारात्मकता फैलानेवालों से कुछ सवाल

 

अभी 24 दिन होगए मेरा छोटा चचेरा भाई घनश्याम हमको छोड़कर चला गया. उसकी हसती हुई सौम्य मुद्रा मेरे मन मश्तीष्क मे आज भी ताजी है मानों वह हमारे मध्य मे ही है.

 हमारे गांव मे तीसरी कक्षा तक ही स्कूल थी. उसके बाद की मेरी पढ़ाई छात्रावासों मे रहकर ही हुई. परिवार की आर्थिक परिस्थितियां नाजुक होने के कारण छूटीयों मे दूर दूर गावों मे बसें रिश्तेदारों से मिलना नहीं होता था. प्रवास के लिए पैसे ही नहीं थे. थोड़े बड़े हुए तो छूटीयों मे छोटा मोटा काम करके पढ़ाई के लिए पैसा जुटाते. ऐसे मे रिश्तेदारों से भेट करने के लिए समय कैसे निकालते?

 घनश्याम को मेरे M. Phil. होने के बाद दिल्ली मे मिलना हुआ. उसका बड़ा भाई मनोज Air Force, दिल्ली मे पोस्टेड था. उसने ही घनश्याम से मिलवाया. तब तक वह नागपुर विश्वविद्यालय से M. A.(Geography) गोल्ड मेडल लेकर हुआ था. NET, JRF भी उसने पास कर लिया था. हाल ही मे उसने नागपुर विश्वविद्यालय मे Ph. D. मे रजिस्टर करवा लिया था. चुंकि मेरा M. Phil. हुआ था, मनोज का मानना था की रिसर्च के बारे मे मेरी थोड़ी बहुत समझ है. तब मैं एक सांसद के स्वीय सचिव के तौर पार्लियामेंट मे काम कर राहा था, उन्ही के सरकारि निवास मे रहता था. घनश्याम मेरे पास ही कुछ दिन ठहरा था.


 शोध के प्रती उसके ललक को देखकर मैंने उसे आग्रह किया था, चुंकि उसके पास JRF है, उसने अछे संस्थान से Ph. D. करनी चाहिए. परन्तु सौभाग्य से चंद्रपुर के खत्री महाविद्यालय मे असिस्टेंट प्रोफेसर की परमानेंट नौकरी उसे मील गई. उसने नौकरी करना चुन लिया. उसके टॉपिक पर बहुत ज्यादा तो मैं उसका मार्गदर्शन नहीं कर सकता था, परन्तु नियमितता से मेरे सम्पर्क मे घनश्याम बना राहा.तब तक सांसद की नौकरी मैंने भी छोड़ दी थी और दिल्ली विश्वाविद्यालय के श्याम लाल महाविद्यालय मे मैंने भी जॉइन कर लिया था.

दिसम्बर 2019 मे मेरे छोटे भाई सदाशिव का विवाह था. उसके विवाह के एक दिन पूर्व ही मैं दिल्ली से चंद्रपुर पहुंचकर घनश्याम के घर ठहरा था. सदाशिव के विवाह के दिन ही मैं और घनश्याम मंगलकार्यालय, जहा सदाशिव का विवाह होना था, पहुंचे थे. घनश्याम मुझसे कहने लगा... दादा हम छोटे भाई एक के बाद एक शादी कर रहें. तुम अभी तक नहीं कर रहें हो. हमें यह अच्छा नहीं लगता. मैंने भी उसकी उसकी बात को टालते हुए मज़ाक मे कह दिया... अरे घनश्याम तेरी बड़ी मा और बड़े बाबा ने मेरा नाम विवेकानंद रखा, कुछ सोचकर ही रखा होगा ना! उसपर वह चुप रह गया था. वैसे भी वह कम ही बोलता था. उसने मुझे कहा था... दादा तुम्हारे सर के बाल सफ़ेद हो गए है. कल सदाशिव दादा की शादी है. तुम्हे थोड़ा ठीक दिखना चाहिए. आओं मैं तुम्हारे बालों को काले कर देता हु. बड़े प्यार से उसने मेरे बाल रंगा दिये थे. उसकी कितनी सारी यादें है!


पिछले वर्ष नवंबर मे उसका विवाह हुआ था. उसकी पत्नी प्रेग्नेंट है.  कुछ ही मास पूर्व वह 31 वर्ष का हुआ था. मैं उसे कहता था... तेरा बहुत लम्बा करियर है. जितना ज्यादा हो सके नई चीजें पढ़. थ्योरी और प्रैक्टिस मे मेल बिठाने की कोशीश कर. वह भी कहता था... हा दादा, अवश्य प्रयास करूंगा और वह सारे प्रयास कर राहा था. कुछ ही दिनों मे अपने महाविद्यालय के एक अच्छे प्राध्यापक के रूप मे उसने अपने को सिद्ध किया था. NAAC का महाविद्यालय का मूल्यांकन हो या अन्य कार्यक्रम हो वह सदैव अग्रणी भूमिका मे रहता था. अपने उन अनुभवों को बड़े उत्साह के साथ मेरे साथ साझा करता था. ऐसा होनहार युवा इस दुनियां को छोड़कर कभी न लौटने के लिए चला गया! इसमें उसके परिवार, समाज और देश की क्षती है.

अभी मुझे पता चला है की वह कोविड से पीड़ित था परन्तु मृत्यु के अंतिम दिवस तक उसने अपना टेस्ट नहीं करवाया था. वह किसी डॉक्टर की सलाह पर  कुछ प्रकार का चिकित्सा उपचार ले राहा था. यह सब तब किया जा राहा था जब इस वुहान विषाणु की खबरे दूर तक फैली थी! इसप्रकार की कोताही, अवैज्ञानिक रवैय्या उसकी जान ले गया.

इस घटना का एक व्यापक पहलु है. इस बीमारी को नियंत्रित अथवा प्रतिबंधित करनेवाला वैक्सीन जब उपलब्ध होने लगा, सरकार वैक्सीन का टिका लगाने पर जोर देने लगी तब हमारे राजनीतिक विपक्ष के लोग इसके खिलाफ बोल रहें थे. वैक्सीन को 'मोदी वैक्सीन' कहकर उसका उपहास कर रहे थे. वैक्सीन को लेकर तरह तरह की अफवाहे फैली हुई थी. जिसके कारण इस वुहान विषाणु की दूसरी लहर हम सभी तक पहुँचने तक वैक्सीन को लेकर डर या शंका का वातावरण बना हुआ था. कुछ लोग तो कह रहें थे की बीमारी कुछ भी हो कोविड घोषित किया जाता है. डॉक्टर पैसे लुटते है और मरीजों को मार देते है. क्या घनश्याम भी इसी अपप्रचार का बली तो नहीं चढ़ा? अगर ऐसा है तो इस बीमारी को लेकर सामान्य लोगों की सोच क्या रही होंगी? याद रहें हमारा घनश्याम प्रोफेसर था, वह चंद्रपुर मे किसी सरकारि कोविड केयर सेंटर का प्रभारी था. इसका मतलब वह फ्रंटलाइन कोविड वारियर्स मे से था. उसने अपना टिका क्यों नहीं करवाया?

हमारी राजनीतिक व्यवस्था के विपक्ष के नेताओं के पास इतना समय तो जरूर है की वह किसान आंदोलकों को उकसाए, उनसे यह कहलवाएं की कोविड के नाम पर मोदी सरकार उन्हें डराकर धारणस्थलों से भगाना चाहती है, उन्हें CAA के खिलाफ भड़काए और सारे देश मे भय का माहौल बनाए. परन्तु इस वुहान विषाणु से विश्व भर मे फैली बीमारी से लोगों को सचेत करने के लिए उनके पास जरा भी समय नहीं है. अब यही लोग मोदी सरकार को कोस रहें है की उसने वैक्सीन बाहर के देशों को मदत के रूप मे क्यों भेजी. हैरानी की बात तो ये है की यह जमात अभी कहने लगी है...भारत सरकार दुनियां के अन्य देशों के साथ इस बीमारी से सम्बंधित आंकड़े साझा न करके दुनियां को खतरे मे डाल रही है. वुहान विषाणु को अभी भारतीय विषाणु के रूप मे स्तापित करने मे देश विरोधी ताकतों का साथ दे रही है.

मुझे इस बात से जरा भी इनकार नहीं है की भारत की सभी केंद्र और राज्य सरकारों ने इस बीमारी से लड़ने मे ढीलाई बरती. अगर समय पर तैयारी की गई होती तो बहुत सारे जीव बच जाते. पर क्या विपक्ष को इस बीमारी के बारे मे, वैक्सीन के बारे मे अफवाहे फैलाने के बजाय लोगों को सचेत नहीं करना चाहिए था? क्या अपने राजनीतिक स्वार्थ के ऊपर उठकर सरकार पर किसान आंदोलन, CAA विरोधी आंदोलन जैसा ही दबाव कोरोना से लड़ाई को लेकर नहीं बनाना चाहिए था? याद रहें की इस देश की जनता ये सवाल आप से भी जरूर पूछेगी. लोगों की हताशा और प्रतिदिन जलनेवाली चिताओं पर अपनी राजनीतिक रोटी आप नहीं सेंक सकते.

Thursday 6 May 2021

कोविड महामारी से संघर्ष एवं राष्ट्रिय एवं अंतरराष्ट्रीय समाज का दाइत्व


आदर पुनावाला का इस भयंकर कोरोना महामारी के मध्य मे भारत छोड़ जाना बहुत ही व्यथित करनेवाला है. उन्होंने टाइम्स को दि हुई इंटरव्यू मे कहा है की उन्हें धमकियाँ दि जा रही है, उनपर बहुत दबाव बनाया जा राहा है. अभी ये सब कौन कर राहा है इसकी छानबीन कर उन्हें कड़ी सजा देने की आवश्यकता है. हमारे देश मे बड़े उद्योजाकों को इसतरहा प्रताड़ित किया जाना यह कोई पहली घटना नहीं है. हाल ही मे हमने देखा है की किस तरह बम की सामग्री लेस एक कार मुकेश अम्बानी के घर के बाहर रखी गई थी. उनको कौन डराना चाहता था यह अभी ठीक से स्पष्ट नहीं हो पाया है. सचिन वझे आदि लोग बस कठपुतलीया है. उनके पीछे बड़े राजनीतिक या अंडरवर्ल्ड के लोग या इन दोनो का सयुंक्त साझेदारी वाला गिरोह होगा यह कोई छोटा बच्चा भी समझ सकता है.

हमारे देश मे एक समूह है जो यशस्वी लोगों को तिरस्कार की दृष्टी से देखता है. उन्हें डिमनाइज करने मे कोई कसर नहीं छोड़ता. कांग्रेस के नेता राहुल गांधी 'हम दो हमारे दो' इस प्रकार के कुटुंब नियोजन से सम्बंधित प्रचार नारों को किस तरह भद्दे तरीके से इस्तेमाल करते है यह हम सभी जानते है. 'ट्रिकल डाउन' इफेक्ट से मैं भी सहमत नहीं हु. भारत जैसे देश मे सारा का सारा आर्थिक नियमन बाजार व्यवस्था के हाथो छोड़ा जाना योग्य नहीं है यह मेरा दृढ़ विश्वास है. पर क्या मृतपाय नियंत्रित आर्थिक नीतियों कों अपनाना योग्य पहल कदमी होंगी? कतई नहीं. चीन जैसे तथाकथित सर्वाहारा की तानाशाही वाले देश मे किसतरह सर्वतः पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के माध्यम से आर्थिक विकास अपनाया जा राहा उसका उदाहरण हमारे समक्ष है.

इसलिए पूंजीवाद के साथ ही कल्याणकारी राज्य  भारत जैसे लोकतान्त्रिक परिप्रेक्ष मे कारगर साबित होगा यह मेरा मानना है. कल्याणकारी राज्य से मेरा मतलब यह नहीं की समाज के सारे क्रियाकलापों पर राज्य का नियंत्रण हो. ऐसा करना हमारी समाज रचना को प्रभावित करेगा. हमारे समाज के  बहुत सारे रीती-नियम समाज को जोड़ने मे और उसे अधिक समावेशक बनाने मे उपयोगी है. पर जो इसके विपरीत होंगे उनपर राज्य का नियंत्रण होना आवश्यक ही है. कोविड महामारी के चलते हुए भी हमारे देश मे जिस प्रकार मजहाबी जमघट जमते है अथवा धार्मिक अनुष्ठान कीए जाते है वे कतई स्वीकार्य नही है. किसी भी व्यक्तीसमूह अथवा संगठन द्वारा ऐसे कृत्यों का समर्थन नही करना चाहिए.

हमने अनुभव किया है की इस महामारी के समय मे भी कुछ लालची तत्वों द्वारा किस तरहा ऑक्सीजन सिलिंडर, रेमडेसीवीर के इंजेक्शन और अन्य जीवनावश्यक वस्तुओं की जमाखोरी की गई. जमाखोरी की गई दवाइयाँ, उपकरण और वस्तुएँ तिगुने, चौगुने और कितने गुने दाम बेचीं गई इसके कई घृणास्पद प्रमाण हमने देखें, सुनें. क्या यह प्रवृत्ति हमारी सभ्यता की परिचायक है? अथवा समाज बहुत आगे निकल चूका है और गत काल के अच्छे सामाजिक आचरणों को भूला चूका है? क्या स्वयंकेंद्रितता हमारे निजी एवं सामाजिक व्यवहार का हिस्सा बन चुकी है? या मानव प्राणी की अच्छाई को हमने कुछ ज्यादा आँका था? इसमें हमें जरा भी संदेह नहीं होना चाहिए की इस अँधेरी रात मे कुछ जलते सितारे जरूर है. परन्तु उनकी संख्या कितनी है? व्यक्तियों का मिलकर ही समाज बनता है. स्वार्थी, स्वयंकेंद्रित, लालची प्रवृत्ति वाले व्यक्ति या उनके समूह का जब समाज मे बोलबाला बढेगा, उत्पादन के संसाधनों पर उन्ही का नियंत्रण स्थापित होगा तो फिर समाज का नियंत्रण कौन करेगा? मुझे लगता है, वह कार्य राज्य करेगा!

तो फिर मेरे मन सवाल आता है, उस राज्य की प्रकृती क्या होनी चाहिए? सर्वहारा की तानाशाही(dectatorship of proletariat) वाले राज्य का दम्भ हमने विश्वभर मे अनुभव किया है. वर्गविहीन समाज रचना के नाम पर कैसे नए वर्गों को जनम उन राज्य व्यवस्थाओं ने दिया यह बात किसी से छुपी नहीं है. राज्यविहीन समाज का 'कल्पना विलास'(utopia) तो बहुत दूर की बात हुई परन्तु इस प्रकार की व्यवस्थाओं मे अधिक शोषण और दमन पर आधारीत नए वर्गों का निर्माण हुआ. सोवीएट यूनियन, चीनी जनवदी गणराज्य, वेनेजुएला क्यूबा आदि साम्यवादी राज्यों मे लोकतान्त्रिक एवं मानवी अधिकारों का अत्याधिक हिंसा द्वारा दमन निरंतर होता राहा.  इसी के साथ पश्चिम बंगाल जैसे भारतीय संघीय संरचना के एक संघीय घटक राज्य मे साम्यवादी पार्टियों के 34 साल के शासनकाल के दौरान हिंसा और दमन के दौर को भी कैसे भुलाया जा सकता है. हिंसा की वह प्रकृती वहां आज भी विद्यमान है. दूसरे साम्यवादी राज्य केरल मे भी इस प्रकार की हिंसात्मक घटनाए समय समय पर उभार लेती रहती है.

तो क्या फिर हम ऐसे राज्य की अपेक्षा करें जो अबंधन या स्वेच्छा व्यापार (Laissez Faire) सिद्धांत द्वारा संचलित हो की जिसमे बाजार व्यवस्था का अदृश्य हाथ संसाधनों का वितरण करेगा? क्या मुक्त बाजार की कल्पना वाकई मे मुक्त है? क्या इस कल्पना के पुरस्कार्ताओं द्वारा प्रायोजित पूर्ण प्रतियोगिता,आर्थिक संतुलन आदि शब्दजाल वाकई वास्तव मे उतर पाए है? मैं कोई अर्थशास्त्री तो नहीं और नाही मुझे इन संज्ञाओं की जटीलता की समझ है. परन्तु यह आर्थिक व्यवस्था जब भी अपने ही लालच एवं स्वार्थ के बोझ तले दबने लगी तो उसने अपने बचाव के लिए राज्य को आमंत्रित किया.उदाहरण के लिए 1929-1939 के वैश्विक महामंदी से निर्मित आर्थिक संकटों से निपटने के लिए  'न्यू डील' या 'मार्शल प्लान' जैसी योजनाओं के माध्यम से डूबती हुई अर्थव्यस्ताओं को राज्य ने सवारा, 2007-08 मे उभरे सबप्राइम मोर्टगेज क्राइसिस मे भी यही हुआ. इसलिए मुक्त बाजार प्रणाली के समर्थकों के द्वारा प्रायोजित अपनाही उल्लू सीधा करनेवाला यह चयनात्मक, स्व-केंद्रित और स्वार्थी दृष्टिकोण अस्वीकार्य और निंदनीय है यह मेरा मानना है.

कोविड की इस वैश्विक महामारी की वजह से विश्व मे सभी ओर हताशा का वातावरण है. विकासशील देशों मे परिस्थियां तो और भी गंभीर है. भारत मे वर्तमान मे प्रतिदिन का मरीजों का आंकड़ा साढ़े तीन लाख से चार लाख की संख्या मे है और हजारों लोग प्रतिदिन मर रहें है. ऐसे मे भारत और साउथ अफ्रीका जैसे देश विश्व व्यापार संगठन मे वैक्सीन के पेटेंट्स पर छूट को लेकर विकसित देशों के पास पिछले साल से गुहार लगा रहें है. यूरोपीयन यूनियन और अमरीका जैसे पावरफुल ब्लॉक्स का 'पेटेंट्स पर छूट' को समर्थन मील जाए तो वैक्सीन का निर्माण बडी मात्रा मे भारत मे संभव होगा.

भारत मे 3000 से ज्यादा फार्मा कम्पनी है और उनकी 10,000 से ज्यादा प्रोडक्शन फेसिलिटीज है. पेटेंट्स पर छूट से इस इंफ्रास्ट्रक्चर का इस्तेमाल करने मे आसानी होंगी और भारत जैसे विशाल आबादी वाले देश की वैक्सीन की जरूरतों की पूर्ती जल्द से जल्द करना संभव होगा. अन्यथा लाखों की संख्या मे लोग मरते रहेंगे. मौजूदा परिस्थितियों मे एक ताज़ा अनुमान के अनुसार विश्व के सभी देशों को मिलाकर 200 करोड़ इतनीही वैक्सीन है. और याद रहें की वैक्सीन के दो डोजेज दिए जाते है. वर्तमान मे उपलब्ध वैक्सीन तो केवल भारत के लोगों की अवश्यकताओं की पूर्ती भी नहीं कर पाएंगी.

वैक्सीन पर छूट के प्रस्ताव को लेकर बुधवार को हुई बैठक मे भारत और साउथ अफ्रीका के प्रस्ताव का अमरीकी राष्ट्रध्यक्ष जो बिडन ने समर्थन किया है. इसीके साथ यूरोपियन यूनियन के अन्य देशों ने भी इस प्रस्ताव का स्वागत किया है. यह अखिल मानवी समुदाय के हित मे सराहनीय पहलकदमी है. ये सारे देश अभी तक इस मांग का पुरजोर विरोध कर रहें थे. इसलिए मैं इसे भारत की कूटनीतिक जीत मानता हु.पर अभी भी यूनाइटेड किंगडम ने, की जहा आदर पुनावाला आश्रय लेकर बैठे है, इस प्रस्ताव का विरोध किया है. वैश्विक फार्मा लॉबी इस प्रस्ताव के खिलाफ मोर्चा खोलने की पुरजोर तैयारी कर रही है. क्या मानव जाती को कोविड के इस महामारी से बचाने के लिए पेटेंट्स पर छूट मील पायेगी? यह तो आनेवाला समय ही बताएगा.

आखिर यह विश्व की बड़ी फार्मा कम्पनियाँ वैक्सीन के पेटेंट पर छूट का विरोध क्यों कर रही है? वो इसलिए की उनको मिलनेवाला मुनाफा कम हो जायेगा. इस महामारी के समय मे भी यह कम्पनियाँ भारी मुनाफे पर नजर लगाएं बैठी है. इतना ही नहीं इन कम्पनीयों के प्रबंधन ने यूरोप और अमरीकी सरकारों के पास पेटेंट्स पर छूट ना दी जाए इसके लिए करोड़ों डॉलर का खर्चा करके लोबिंग की है. ऐसी छूट मील जाए तो इनके पैसे तो डूब गए. क्या आदर पुनावाला जैसे लोग भी इसी कड़ी का हिस्सा तो नहीं? इस बात की शंका मेरे मन मे इसलिए भी उठती है क्योंकि वैश्विक फार्मा कम्पनीयों के महत्वपूर्ण सगठनों के वे सन्माननीय सदस्य भी है.

क्या यह बड़ी कम्पनियाँ वाकई मे छोटी कम्पनियों को फार्मा बाजार मे टिकने देगी? मेरी समझ मे नहीं. तो किस बात की पूर्ण प्रतियोगिता और मुक्त बाजार व्यवस्था? मानवी भाव भावनाएं पैसों के आगे तो कोई मायने ही नहीं रखती. पर इनके द्वारा प्रायोजित कुछ लोग इनका समर्थन करते हुए सारा बौद्धिक शब्दछल करने मे कोई कसर नहीं छोड़ते.
इसलिए मुक्त बाजार व्यवस्था के नियमों का पालन होता है या नहीं इसपर निगरानी राज्य को ही रखनी होंगी. इसकी के साथ बड़ी मछलियां छोटी मछलियों को निगल ना जाए इस बात को भी राज्य को ही सुनिश्चित करना होगा.

भारत जैसे इतनी तीव्र असमानता वाले देश मे तो राज्य की भूमिका अधिक प्रासंगिक बनती है. सार्वजानिक आरोग्य, शिक्षा आदि हमारे मानवसंसाधन को प्रभावित करनेवाले बुनियादी क्षेत्रों मे सरकार की भूमिका कई अधिक गुना बढ़ने की आवश्यकता है. तभी जाकर महात्मा गांधी जी, पंडित दीन दयाल उपाध्याय जी जैसे हमारे मनीषीयों के सपनों के भारत का निर्माण करने मे हम सफल होंगे.

कोविड जैसी वैश्विक समस्याओं का समाधान भी वैश्विक रणनीती से ही संभव है. किसी एक राज्य के प्रयासों से ऐसी भयावह परिस्थितियों का हल नहीं निकाला जा सकता. इसलिए आवश्यक है की कोविड जैसी वैश्विक विपदाओं से निपटने के लिए सारा वैश्विक समुदाय एक साथ जुट जाए. कॉर्पोरेट लालच को नजरअंदाज करते हुए ऐसे व्यक्ती एवं सगठनों को यह समझाने की आवश्यकता है की यह समय उनके लालच की पूर्ती का नहीं अपीतु मानव जाती को बचाने का है. अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर यह सब तभी संभव होगा जब बहुपक्षीय संस्थाओं(multilateral institutions) को मजबूत किया जायेगा और उनके प्रती श्रद्धा का भाव सभी राष्ट्रों मे स्तापित होगा.