माननीय राष्ट्रपतीजी के बजट सत्र पर अभिभाषण के उपलक्ष्य मे माननीय प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदीजी ने धन्यवाद प्रस्ताव प्रस्तुत करते हुए निम्न पंक्तियाँ उद्धृत की...
वो जो दिन को रात कहें तो तुरंत मन जाओ,
नहीं मानोगे तो वो दिन मे नकाब ओढ़ लेंगे!
जरुरत हुई तो हकीकत को थोड़ा बहुत मरोड़ लेंगे!
वो मगरूर है खुद की समझ पर बेइंतहा,
उन्हें आईना मत दिखाइए, वो आईने को भी तोड़ देंगे!
प्रो. शांतिश्री पंडितजी के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की पहली महिला कुलुगुरु नियुक्त होने पर समाज के विविध घटकों से, विशेषकर अकादमीक जगत से जुड़े व्यक्तियों द्वारा अभिनन्दन की वर्षा होना
स्वाभाविक प्रतिक्रिया है. उनके जैसे भारतीय विचारों से प्रेरित शिक्षाविदों का
राष्ट्र की प्रतिष्ठित शिक्षा संस्थानों के अत्यंत महत्वपूर्ण प्रशासकीय दाइत्वों
पर नियुक्त होना सकारात्मक पहलकदमी है. प्रो. पंडित जैसे शिक्षा जगत से जुड़े
व्यक्तियों का ऐसे महत्वपूर्ण दाइत्वों पर नियुक्त होना इसलिए भी महत्वपूर्ण है
क्योंकि नई राष्ट्रीय शिक्षा नीती का हमारे शिक्षा संस्थानों मे लागु होना है. अभी
तक की हमारी शिक्षा नीतियाँ प्रायः औपनिवेशिक अथवा सरल शब्दों मे पश्चिम से आयातित
विचारों से प्रणीत थी. अगर आगामी राष्ट्रीय शिक्षा नीती का भारतीयता मे अंतर्निहित
होना आवश्यक है तो प्रो. पंडित जैसे लोगों का नेतृत्व इस दिशा मे मील का पत्थर
साबित होगा. परन्तु कल से उनके नियुक्ति के उपरांत कुछ तथाकथित बौद्धिक लोग या फिर
जिन्हे साम्प्रत काल मे "लेफ्ट-लिबरल इंटेलेक्चुअल" कहा जाता है, उन्होंने असत्य और षड़यंन्त्रों की उल्टी
करना शुरू कर दिया है जैसा कि वो आम तौर पर करते आये है. इसलिए माननीय
प्रधानमंत्री द्वारा उद्धृत उपर्युक्त पंक्तियाँ उन्हें समर्पीत करने जैसी है.
प्रो. शांतिश्री पंडित म्याडम के संपर्क मे मैं गत कई वर्षों से राहा हू.
मैं अपने आप को सौभाग्यशाली मानता हू कि मुझे उनका मार्गदर्शन एवं अभिभावक जैसा
स्नेह सदैव मिलता राहा है. मूलतः वे तमिल और तेलगु भाषिक है और उनका सारा अध्ययन
अंग्रेजी माध्यम मे हुआ है. परन्तु जब से उन्होंने सावित्रीबाई फुले पुणे
विश्वविद्यालय मे अध्यापन का दाइत्व संभाला, उन्होंने मराठी मे बोलना एवं पढ़ना सीखा. उनके साथ के वार्तालाप मे उन्होंने
मुझसे कहा "अरे,
विवेक, हमारे विश्वविद्यालय मे प्रमुखता से छोटे
छोटे गावों से मराठी माध्यम मे पढ़ने वाले छात्र आते है. उन्हें शुरुवात मे
अंग्रेजी ठीक से समझ नहीं आती है. उन्हें अगर अंग्रेजी मे पढ़ाया जाए तो उनके कुछ
भी समझ मे नहीं आएगा. वे परीक्षा के उत्तर भी तो मराठी मे ही लिखते है. इसलिए मुझे
मराठी बोलना एवं पढ़ना सीखना अनिवार्य था." इससे अपने छात्रों के प्रती वे कितनी
संवेदनशील रही है इसका अंदाजा हम सबको होगा.
मेरे जैसे अकादमीक यात्रा के प्रारंभिक पड़ाव पर खड़े कई लोगों का उन्होंने
मार्गदर्शन किया है. उनका सदैव उत्साहवर्धन किया है. यह मैं अपने व्यक्तिगत
अनुभवों के आधार पर कह राहा हू. कोरोना काल के शुरुवाती समय मे अखिल भारतीय
विद्यार्थी परिषद वर्धा द्वारा छात्रों एवं शोधार्थियों के लिए व्याख्यानमाला चलाई
जा रही थी. म्याडम तब अपने पती के स्वास्थ्य के देखभाल हेतु अमेरिका मे रह रही थी.
मैंने उन्हें फ़ोन करके व्याख्यानमाला मे मार्गदर्शन का आग्रह किया. उन्होंने बड़े
उत्साह के साथ प्रस्ताव का स्वीकार किया एवं आयोजकों को बधाई दी. ऐसे अन्य कई
अवसरों पर उन्हें मैंने आमंत्रित किया. मेरे जैसे सामन्य व्यक्ती के साथ कार्यक्रम
करने मे भी उन्होंने हिचकिचाहट नहीं की किंतु मुझे प्रोत्साहित ही किया. वो इसलिए
कि हम भी उनके अनुभव से कुछ सीखें और आनेवाले दिनों मे अपने आप को एक अच्छे
अकादमीक के रूप मे स्थापित करें.
पिछले एक-दो दिनों मे, विशेषकर उनके उपकुलुगुरु के दाइत्व पर नियुक्ति के उपरांत उनके बारे अनेक
षड्यंत्रकारी बातें प्रसारित की जा रही है. कुछ सोशल मिडिया ट्रोलर्स सक्रिय
भूमिका मे आ गए है. बिना जाने कुछेकों ने तो उनके अकादमीक साख पर भी सवाल उठाना
शुरू कर दिया है. उन्हें शायद पता नहीं इसलिए उनके जानकारी के लिए कह दू उनके पिता
जी तमिलनाडु कैडर के प्रशासकीय अधिकारी थे. उन्होंने Ph. D. कर रखी थी. उनकी कई किताबें प्रकाशीत है.
उनकी माता जी
पिटर्सबर्ग
विश्वविद्यालय (रूस) मे तमिल एवं भारतीय ज्ञान परंपरा का अध्यापन केंद्र शुरू करने
वाली प्रथम प्राध्यापिका रही है. प्रो. शांतिश्री म्याडम का जन्म भी वही हुआ है.
सेंट जेविर महाविद्यालय,
चैन्नई मे
स्नातक एवं परा-स्नातक की पढ़ाई मे वे गोल्ड मैडलिस्ट रही है. जे. एन. यू. के
अंतर्राष्ट्रीय अध्ययन केंद्र से उन्होंने एम. फील. और पीएच. डी. किया है. गत तीन
साडे तीन दशकों से वे गोवा विश्वविद्यालय एवं सावित्रीबाई फुले पुणे विश्वविद्यालय
मे अध्यापन का कार्य वे निरंतरता से कर रही है. इसके साथ ही उन्होंने विविध शासकीय
संस्थाओं मे अनेक दाइत्व निभाए है. यह सब उनके अविरत तप का फल है.
एक विशेष प्रकार का अकादमीक गिरोह उन सब को अपमानित करने के षड़यंत्रो मे
सदैव सक्रिय रहता है जो उनकी मनमुताबिक योजनाओं के हिसाब से कार्य नहीं करते. उनके
जैसी सोच न रखने पर उन्हें अनेक अग्नी परीक्षाओं का सामना करना पड़ता है. इसमें
हमें कतई संदेह नहीं होना चाहिए क्योंकि इन्होने आर. सी. मुजमदार जैसे इतिहासकारों
पर साम्प्रदाईकता को बढ़ावा देने तक का लांछन लगाया है. पश्चिम के विचार एवं
सिद्धांतो को जस के तस रटकर उन्हें भारतीय परिप्रेक्ष थोपना यही उनके लिए
बौद्धिकता की निशानी है. अब समय आ गया है कि राष्ट्रवादी एवं भारतीयता के विचारों
की मशाल ले चलनेवाले सभी को इस प्रकार की मानसिकताओं का डटकर विरोध करना होगा.
Good explanation Vivek
ReplyDeleteउपयोगी
ReplyDeleteNice wrote vivek sir
ReplyDeleteVery good analysis of one of the graet n brave academecian Shantishree madam,,,,i know her through so many posts n articles attached by the friends like u vivek sir,,,,yr writing level is really very standard also.
ReplyDelete👍👍
ReplyDeleteअच्छा प्रस्तुती है।
ReplyDeleteबहुत बढ़िया विवेकानंद जी
ReplyDeleteleft liberals / pseudo intellectuals /
ReplyDeletepseudo secular से "शठे शाठ्यम समाचरेत्" की नीति से ही निपटा जा सकता है, अत: इन दुष्टों द्वारा किये जा रहे दुष्प्रचार का दोगुने वेग से प्रतिकार करना ही एक मात्र उपाय है।
Nice 👍👍👍
ReplyDeleteखुप सुंदर
ReplyDeleteVery nice
ReplyDeleteअतिशय सुंदर आणि वास्तववादि विश्लेषण आपण केले आहे सर.... मॅडमचे मनःपूर्वक अभिनंदन आणि पुढील कार्यासाठी शुभेच्छा.. 🌹👌👌🙏🙏एत्या्देशीयवाद विकसित करणे गरजेचे आहे. यासाठी प्राच्यविद्या दृष्टीकोनातून भारतीय समजव्यवस्थेच्या अध्ययनाची गरज आहे...
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