हर वर्ष हम 5 सितम्बर को शिक्षक दिवस के रूप में मनाते हैं। यह केवल औपचारिक उत्सव नहीं है, बल्कि हमारे जीवन में शिक्षकों के अमूल्य योगदान को स्मरण करने का अवसर भी है। शिक्षक केवल ज्ञान के वाहक नहीं होते, वे मार्गदर्शक, संस्कारदाता और राष्ट्रनिर्माता होते हैं। वे हमें जीवन के शुरुआती वर्षों में दिशा देते हैं, अनुशासन और सीखने का प्रेम पैदा करते हैं। इस शिक्षक दिवस पर, मेरे पहले शिक्षक का स्मरण आप सभी के साथ साझा करना चाहता हु —एक ऐसे गुरु, जिनकी निष्ठा और त्याग ने मेरे जीवन को गहराई से प्रभावित किया और जिनकी प्रेरणा आज भी मुझे शक्ति देती है, जब मैं स्वयं अपने विद्यार्थियों के सामने खड़ा होता हूँ।
मेरा बचपन भामरागढ़ तहसील के एक दूरस्थ जनजति गाँव में बीता, जहाँ शिक्षा लगभग दुर्लभ थी। वहीं मेरी भेंट मेरे पहले शिक्षक श्री जगदीश रामटेके से हुई, जिन्होंने मुझे पहली से तीसरी कक्षा तक पढ़ाया। संयोग से, हम भी उनकी पहली बैच के विद्यार्थी थे।
उस समय दूर-दराज़ के जनजति इलाकों में शिक्षा का नामोनिशान मुश्किल से ही मिलता था। स्कूल तो बनते थे, पर शिक्षक अक्सर ज्वाइन ही नहीं करते थे और जो आते भी थे, वे अधिकांश समय अनुपस्थित रहते थे। लेकिन रामटेके सर अलग थे। वे केवल कागज़ पर दर्ज शिक्षक नहीं थे—बल्कि शिक्षा के सच्चे प्रहरी थे। रहने की कठिनाइयों, यातायात के अभाव और नक्सली उग्रवाद के बीच भी वे हमारे गाँव में रहे और पूरी निष्ठा से पढ़ाते रहे।
वे अपेक्षाकृत उन्नत शहरी क्षेत्र से आए थे और पहले पुलिस बल में भी सेवा कर चुके थे। नक्सलियों की नज़र में पुलिसकर्मी शत्रु माने जाते थे। ऐसे में उनका गाँव में रहना जोखिम से भरा था। फिर भी, उन्होंने हिम्मत और शिक्षा के प्रति अपनी प्रतिबद्धता से किसी भी खतरे को महत्व नहीं दिया।
रामटेके सर की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि उन्होंने खुद को केवल कक्षा तक सीमित नहीं रखा। घने जंगल, नदियां ऐसे परिवेश में बसे हमारे जनजाति गावों में लोग शिक्षा के महत्व से अनजान थे। उनका जीवन प्रकृति और आजीविका आधारित कृषि पर निर्भर था। बच्चों को स्कूल भेजना बेकार समझा जाता था।
लेकिन उन्होंने इस मानसिकता को बदलने का बीड़ा उठाया। वे घर-घर जाकर अभिभावकों को समझाते, उन्हें बच्चों की शिक्षा के महत्व के बारे में बताते। और यदि समझाने के बाद भी बच्चे स्कूल नहीं आते, तो वे स्वयं हमें लेकर गाँव में जाते और बच्चों को पकड़कर स्कूल लाते।
उन्होंने शिक्षा को रोचक बनाने और गाँव में सांस्कृतिक वातावरण खड़ा करने की भी ठानी। वे हर सुबह बच्चों और युवाओं को कबड्डी, खो-खो और अन्य खेलों में जुटाते। उन्होंने गणेश चतुर्थी और दशहरा जैसे पर्वों का आयोजन किया, सांस्कृतिक कार्यक्रम करवाए और ग्राम पंचायतों में सक्रिय भागीदारी निभाई। धीरे-धीरे लोग शिक्षा के महत्व को समझने लगे और हमारा छोटा-सा विद्यालय शिक्षा और खेल-कूद दोनों में प्रसिद्ध होने लगा।
कुछ समय पहले मुझे उनसे मिलने का अवसर मिला। जब उन्होंने मुझे दिल्ली विश्वविद्यालय में प्राध्यापक के रूप में देखा, तो उनकी आँखों से खुशी के आँसू छलक पड़े। उनके शब्द आज भी मेरे मन में गूंजते हैं— “यही मेरी जीवन की कमाई है और मुझे उस पर गर्व है।”
उन्होंने मुझे अपने अनुभव सुनाए कि किस प्रकार उन्होंने नक्सल प्रभावित गाँव में शिक्षा का दीप जलाए रखा। एक बार नक्सलियों ने उन्हें बुलाया भी, लेकिन उनकी नीयत और बच्चों के प्रति समर्पण देखकर उन्हें कोई हानि नहीं पहुँचाई। उनका जीवन साहस और प्रतिबद्धता का ज्वलंत उदाहरण है।
आज वे अस्वस्थ हैं, किडनी संबंधी रोग से पीड़ित हैं। खेलों से प्रेम करने वाले और विद्यार्थियों में खेलों की भावना जगाने वाले इस ऊर्जावान शिक्षक को अब चलने-फिरने में कठिनाई होती है। यह देख मन दुखी होता है। फिर भी, वे आज भी शिक्षा से जुड़े रहते हैं। जब भी अवसर मिलता है, वे अपने सेवानिवृत्ति वाले विद्यालय में बच्चों से मिलने चले जाते हैं।
उन्हें याद करते हुए आज की शिक्षा व्यवस्था पर भी विचार करना आवश्यक है। जिस समय रामटेके सर जैसे शिक्षक गांव में घूम-घूमकर बच्चों को पढ़ाई के लिए लाते थे, आज कई शिक्षक अपने कर्तव्यों से उदासीन हो चुके हैं।
विडंबना यह है कि सरकारी स्कूलों के कई शिक्षक स्वयं अपने बच्चों को उन्हीं स्कूलों में नहीं भेजते, बल्कि निजी विद्यालयों में पढ़ाते हैं। इससे यह साफ है कि सार्वजनिक शिक्षा प्रणाली में विश्वास घट रहा है, और यह स्थिति अपर्याप्त बजट, ढाँचे की कमी और जवाबदेही के अभाव से और बिगड़ रही है।
शिक्षा का तीव्र निजीकरण अमीर और गरीब के बीच गहरी खाई बना रहा है। जिनके पास साधन हैं, वे गुणवत्तापूर्ण निजी शिक्षा खरीद सकते हैं; लेकिन गरीब और हाशिए पर खड़े बच्चे बदहाल सरकारी स्कूलों में पीछे छूट जाते हैं। शिक्षा, जो समानता का माध्यम होनी चाहिए थी, अब असमानता का प्रतीक बनती जा रही है।
सरकारों को निश्चित ही शिक्षा पर व्यय बढ़ाना चाहिए, पर केवल धन से समस्या हल नहीं होगी। असली परिवर्तन के वाहक तो शिक्षक स्वयं होते हैं। उनकी निष्ठा, समर्पण और आदर्श ही पीढ़ियों को प्रेरित कर सकते हैं—जैसा कि रामटेके सर ने किया।
इस शिक्षक दिवस पर, जब मैं अपने श्री जगदीश रामटेके सर को नमन करता हूँ, तो समझ पाता हूँ कि सच्चे शिक्षक केवल पढ़ाने वाले नहीं होते—वे राष्ट्रनिर्माता होते हैं। वे विशेष रूप से उन बच्चों के लिए प्रकाशपुंज होते हैं जो आर्थिक रूप से कमजोर हैं, जनजाति और दूरदराज़ क्षेत्रों में रहते हैं।
मेरे लिए, उनके विद्यार्थी से दिल्ली विश्वविद्यालय का प्राध्यापक बनने की यात्रा इस बात का प्रमाण है कि एक सच्चा शिक्षक जीवन बदल सकता है। उनके त्याग, साहस और समर्पण मेरे भीतर और हर उस विद्यार्थी में जीवित हैं जिन्हें उन्होंने शिक्षा दी
इस शिक्षक दिवस पर, मैं उनके उत्तम स्वास्थ्य, सुख और दीर्घायु की कामना करता हूँ। उनका उदहारण मुझे यह स्मरण दिलाता रहे कि नीतियाँ और बजट महत्वपूर्ण हैं, पर अंततः राष्ट्र का निर्माण उसी शिक्षण-भावना से होगा जो एक सच्चे शिक्षक के भीतर जीवित रहती है।
Proud of you Ramteke sir for being such student!
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