Sunday, 22 June 2025

ईरान इज़राइल के विरुद्ध अकेले युद्ध क्यों लड़ रहा है?

 


ईरान और इज़राइल के बीच लंबे समय से चल रहा तनाव अब अभूतपूर्व प्रत्यक्ष संघर्ष में बदल चुका है, जिसमें दोनों पक्षों ने मिसाइल हमले किए हैं और क्षेत्र में भारी उथल-पुथल मच गई है। इस संघर्ष को और अधिक गंभीर तब बना दिया जब अमेरिका ने ईरान के फोर्दो, इस्फहान और नतांज़ जैसे रणनीतिक ठिकानों पर हमलों की पुष्टि की। लेकिन इन सब से भी अधिक चौंकाने वाली बात यह है कि इस्लामी दुनिया ने ईरान की इस संकट की घड़ी में पूर्णतः चुप्पी साध रखी है। कोई भी इस्लामी देश उसके समर्थन में सामने नहीं आया है। इसके विपरीत, कुछ देशों ने या तो रणनीतिक चुप्पी बनाए रखी है, या तटस्थ रुख अपनाया है, या अमेरिका-इज़राइल के खेमे में झुकाव दिखाया है। उदाहरण के लिए, पाकिस्तान के सेनाध्यक्ष असीम मुनीर हाल ही में अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप द्वारा आयोजित व्हाइट हाउस में एक निजी भोज में शामिल हुए , जो पाकिस्तान के पश्चिमी झुकाव का प्रतीक है।

कमज़ोर होता  Axis of Resistance

1979 की इस्लामी क्रांति के बाद से, ईरान ने पूरे मध्य पूर्व में अपने प्रभाव का विस्तार एक नेटवर्क के ज़रिये किया, जिसमें उसके सहयोगी और प्रॉक्सी ताकतें शामिल थीं। इस गठबंधन को सामूहिक रूप सेAxis of Resistanceकहा गया, जिसमें लेबनान का हिज़्बुल्लाह, यमन के हूथी विद्रोही, इराक़ की शिया मिलिशिया और फिलिस्तीनी गुट हमास तथा इस्लामिक जिहाद जैसे संगठन शामिल थे। इन सभी का साझा उद्देश्य अमेरिका और इज़राइल के प्रभाव का विरोध करना था।

लेकिन पिछले दो वर्षों में इस धुरे की ताकत में भारी गिरावट आई है। ईरान के कई सहयोगी या तो सत्ता से बाहर हो चुके हैं या गंभीर संकट में हैं। किंग्स कॉलेज लंदन के सुरक्षा विशेषज्ञ आंद्रेयस क्रीग कहते हैं कि यह अब एक संगठित गठबंधन नहीं बल्कि एक ढीला-ढाला नेटवर्क बन गया है, जहां हर संगठन अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है।

ऑस्ट्रेलियन नेशनल यूनिवर्सिटी के मध्य पूर्व विशेषज्ञ इयान पारमीटर के अनुसार, ईरान पिछले 40 वर्षों में सबसे कमजोर स्थिति में है। उनके अनुसार, ईरान के पारंपरिक सहयोगियों की क्षीण शक्ति के कारण ही इज़राइली रक्षा बलों को खुलकर कार्रवाई करने का अवसर मिल रहा है। उदाहरण के लिए, हमास की सैन्य शक्ति पिछले दो वर्षों में इज़राइल के साथ संघर्ष में काफी हद तक नष्ट हो चुकी है। सीरिया में बशर अल-असद की सरकार, जो कभी ईरान की मज़बूत साझेदार थी, हिज़्बुल्लाह के साथ युद्ध के कुछ ही सप्ताहों बाद गिर गई।

इस्लामी क्रांति के बाद से ईरान की अलग-थलग स्थिति

ईरान की क्षेत्रीय अलगाव की जड़ें 1979 में शाह मोहम्मद रज़ा पहलवी की सत्ता से बेदखली और ईरान में इस्लामी गणराज्य की स्थापना में निहित हैं। अयातुल्ला खुमैनी के नेतृत्व में सत्ता में आई यह क्रांति केवल राजनीतिक बल्कि वैचारिक बदलाव लेकर आई, जिसने सुन्नी-बहुल अरब देशों को चिंतित कर दिया।

ईरान में इस क्रांति के बाद धर्म और राजनीति को मिला दिया गया, और शिया इस्लाम को शासन और विदेश नीति का आधार बना दिया गया। खुमैनी काइस्लामी क्रांति का निर्यातकरने का विचार फ्रांसीसी क्रांति और शीत युद्ध में अमेरिकी लोकतांत्रिक प्रसार जैसी ही एक वैचारिक क्रांति थी, जिसने पड़ोसी सुन्नी शासकों को डरा दिया।

ईरान की इस्लामिक क्रांति के बाद की पश्चिम विरोधी और इज़राइल विरोधी नीति ने अरब देशों के साथ इसके रिश्तों को और अधिक जटिल बना दिया। ईरान-इराक युद्ध (1980–1988) के दौरान अधिकांश खाड़ी देशों ने इराक का समर्थन किया। ईरान के बढ़ते प्रभाव को रोकने के लिए 1981 में छह खाड़ी देशों ने मिलकर खाड़ी सहयोग परिषद (GCC) की स्थापना की।

सुन्नी-शिया विभाजन: धर्म और राजनीति का टकराव

ईरान की अलग-थलग स्थिति का एक बड़ा कारण धार्मिक मतभेद भी है। शिया दुनिया का नेता माने जाने वाला ईरान, सुन्नी इस्लाम के रक्षक सऊदी अरब के विपरीत धार्मिक और वैचारिक दृष्टिकोण रखता है। 1979 से पहले दोनों देश पश्चिम समर्थक राजशाही थे, लेकिन क्रांति के बाद दोनों के बीच सत्ता और प्रभाव को लेकर संघर्ष शुरू हो गया।

ईरान की क्रांति से प्रभावित होकर शिया आंदोलनों के बढ़ने के डर से सऊदी अरब ने वहाबी विचारधारा का प्रसार और समर्थन करना शुरू किया। दोनों देशों के बीच यह धार्मिक संघर्ष अब लेबनान, सीरिया, यमन और पाकिस्तान जैसे देशों में प्रॉक्सी युद्धों में तब्दील हो गया है।

1987 में हज यात्रा के दौरान ईरानी तीर्थयात्रियों और सऊदी सुरक्षाबलों के बीच टकराव ने दोनों देशों के रिश्तों को पूरी तरह तोड़ दिया। 2000 के दशक में संबंध थोड़े सुधरे, लेकिन ईरान द्वारा अमेरिका में सऊदी राजदूत की हत्या की साजिश ने तनाव को पुनः बढ़ा दिया।

2011 के अरब स्प्रिंग के दौरान ईरान ने बहरीन और सऊदी अरब में शिया आंदोलनों का समर्थन किया, जिसके बाद 2016 में सऊदी अरब, यूएई, कुवैत और बहरीन ने ईरानी राजनयिकों को निष्कासित कर दिया।

ईरान की प्रॉक्सी रणनीति और इसकी सीमाएं

ईरान की सैन्य रणनीति असममित युद्ध और प्रॉक्सी संगठनों पर आधारित रही है। 1980 के दशक से वह हिज़्बुल्लाह, आसाइब अहल अल-हक़, हरकत हिज़्बुल्लाह अल नुजबा, हूथी विद्रोही और फिलिस्तीनी इस्लामिक जिहाद जैसे संगठनों को हथियार, प्रशिक्षण और धन मुहैया कराता रहा है।

हिज़्बुल्लाह, ईरान की इस रणनीति का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा है, जिसे ईरान सालाना लगभग 700 मिलियन डॉलर की मदद देता है। इसके महासचिव हसन नसरल्लाह ने खुद स्वीकार किया है कि "हम जो कुछ खाते-पीते हैं, हमारे हथियार और रॉकेट सब कुछ ईरान देता है।"

लेकिन इन प्रॉक्सी संगठनों के सहारे की गई यह रणनीति कूटनीतिक रूप से ईरान के लिए हानिकारक सिद्ध हुई है। कई अरब देश इन संगठनों को आतंकवादी मानते हैं और इसके चलते ईरान के साथ अपने रिश्तों को सीमित रखते हैं।

परिवर्तनशील रणनीतियाँ: हाल की कूटनीतिक पहलें

पिछले कुछ वर्षों में ईरान और खाड़ी देशों के बीच तनाव कम करने के प्रयास हुए हैं। मार्च 2023 में ईरान और सऊदी अरब ने फिर से राजनयिक संबंध बहाल करने की घोषणा की। ईरान ने सऊदी अरब में शिया आबादी को भड़काने से परहेज करने की बात कही। यूएई ने 2021 में ईरान से रिश्ते बहाल किए, कुवैत ने समुद्री सीमा विवाद पर बातचीत शुरू की, और बहरीन भी अब ईरान से संबंध सामान्य करने की प्रक्रिया में है।

इन कदमों के परिणामस्वरूप 2022 से 2023 के बीच ईरान का व्यापार इन खाड़ी देशों के साथ लगभग 10% तक बढ़ा है। लेकिन यह संबंध अधिकतर व्यावसायिक और सुरक्षा संबंधी कारणों से हैं, कि किसी इस्लामी एकजुटता के तहत।

रणनीतिक समीकरण और अब्राहम समझौते

अब्राहम समझौतेजिसके तहत यूएई, बहरीन, मोरक्को और सूडान जैसे अरब देशों ने इज़राइल के साथ राजनयिक संबंध स्थापित किएने क्षेत्र की राजनीति को नई दिशा दी है। अब ये देश इज़राइल के साथ तकनीकी, सुरक्षा और आर्थिक सहयोग को तरजीह दे रहे हैं।

ईरान के परमाणु कार्यक्रम को लेकर भी अधिकांश अरब देशों में चिंता है। वे नहीं चाहते कि ईरान परमाणु शक्ति बने और क्षेत्र में शक्ति संतुलन को अपने पक्ष में कर ले।

इस परिप्रेक्ष्य में ईरान की अलगाव स्थिति आकस्मिक नहीं बल्कि संरचनात्मक है , यह उसकी वैचारिक नीतियों, प्रॉक्सी युद्धों और परमाणु महत्वाकांक्षाओं का परिणाम है।

निष्कर्ष: ईरान का संकट और इस्लामी एकता का भविष्य

ईरान की वर्तमान स्थिति इस्लामी दुनिया में उसके वैचारिक, सांप्रदायिक और रणनीतिक अलगाव का परिणाम है। एक समय वह इस्लामी जागृति का नेतृत्व करना चाहता था, लेकिन उसकी शिया केंद्रित नीतियों, उग्र भाषणों और आतंक से जुड़े संगठनों को समर्थन देने की रणनीति ने उसे अपने ही मुस्लिम पड़ोसियों से दूर कर दिया।

आज के मध्य पूर्व में व्यावहारिकता (pragmatism) ने वैचारिकता (ideology) को पीछे छोड़ दिया है। अरब देश अब अपने आर्थिक और रणनीतिक हितों को प्राथमिकता देते हुए इज़राइल और अमेरिका से हाथ मिला रहे हैं। नतीजतन, ईरान आज केवल बाहरी दुश्मनों के कारण, बल्कि अपनी नीतियों के कारण भी अकेला पड़ गया है।

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