Saturday, 24 May 2025

अबूझमाड़: माओवाद की छाया से समावेशी विकास की ओर


 

छत्तीसगढ़ के नारायणपुर जिले में हाल ही में हुई मुठभेड़, जिसमें सुरक्षा बलों ने प्रतिबंधित भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) के 27 सदस्यों को मार गिराया - जिसमें इस प्रतिबंधित पार्टी के महासचिव नम्बाला केशव राव उर्फ ​​बसवराजू भी शामिल थे. अबूझमाड़ के अशांत क्षेत्र में घटी इस घटना की ओर एक ऐतिहासिक बदलाव के प्रतीक के रूप में भी देखा जा सकता है। दशकों से यह घना और दुर्गम वन प्रदेश माओवादी उग्रवाद का गढ़ बना हुआ था, जो मुख्यधारा से कट चुका था। लेकिन अब जब माओवादी प्रभाव स्पष्ट रूप से घट रहा है ऐसा दिख रहा है, तब जनजाति समाज के लिए एक नई सुबह की उम्मीद नजर आने लगी है, जिन्होंने लंबे समय से मौन रहकर यातनाएं सही हैं।

लेकिन जहां शीर्ष उग्रवादियों का खात्मा एक महत्वपूर्ण पड़ाव है, वहीं असली सवाल यह है: क्या यह अवसर वास्तविक विकास की राह खोलेगा, या बस एक प्रकार के शोषण को किसी नए रूप में बदल देगा?

 

माओवादियों की छाया में जीवन: व्यक्तिगत अनुभव

मैं महाराष्ट्र के गडचिरोली ज़िले के भामरागड तहसील के एक छोटे से गांव कुक्कामेटा से आता हूँ, जो माओवादी हिंसा से प्रभावित क्षेत्रों में शामिल है। हमारे लिए माओवादियों की अनुपस्थिति का मतलब केवल सुरक्षा नहीं है। इसका अर्थ है कि वह लंबे समय से प्रतीक्षित सपना, सड़कें, स्कूल, स्वास्थ्य सेवाएं और डिजिटल कनेक्टिविटी, अब साकार हो सकता है।

बचपन में, मुझे याद है कि कैसे माओवादी प्रतिशोध के डर से विकास कार्य ठप पड़े थे। ना सड़कें थीं, ना स्कूल, ना अस्पताल। जीवन बसर करने के लिए आवश्यक बुनियादी सुविधाएं भी गायब थीं। सरकारी कर्मचारी, जो विशेष भत्ते (नक्सल भत्ता) लेते थे, अक्सर ड्यूटी से नदारद रहते थे. वे लोग यह सब माओवादियों के खतरे का हवाला देकर किया करते थे।

यहां तक कि नदी पर पुल जैसी मूलभूत संरचनाओं का माओवादी विरोध करते थे। स्कूल के दिनों में, भामरागढ़ पहुंचने के लिए हमें रोज़ नदी पार करनी होती थी। इसका एकमात्र माध्यम एक कमजोर सी लकड़ी की डोंगी (नाव) थी, जिसमें मानसून के दौरान सफर करना जान जोखिम में डालने जैसा होता था। एक गलत कदम, पानी का अचानक बहाव, और हम डूब सकते थे। लेकिन कोई विकल्प नहीं था।

माओवादी सड़कों और पुलों का विरोध इसलिए करते थे क्योंकि इससे राज्य की पहुँच बढ़ती और उनका नियंत्रण कमज़ोर होता। अपने प्रभाव क्षेत्रों को बचाने के प्रयास में उन्होंने जनजाति समाज की पीढ़ियों को प्रगति और अवसरों से वंचित कर दिया।

 

जनजातीय संतोष का मिथक

बाहरी लोग अक्सर यह भ्रम पालते हैं कि जनजाति लोग विकास नहीं चाहते। वे अपने जंगलों में, अपने पुराने तरीकों से संतुष्ट हैं। यह धारणा सरासर गलत है। सच्चाई यह है कि उन्हें जानबूझकर अलग-थलग रखा गयाशिक्षा, स्वास्थ्य सेवाएं और अवसरों से वंचित किया गया।

अब स्थितियां बदल रही हैं। आज जनजाति युवा स्कूलों और कॉलेजों में पढ़ रहे हैं। वे डॉक्टर, इंजीनियर, प्रशासनिक अधिकारी और प्रोफेसर बनना चाहते हैं। वे अपनी संस्कृति को संजोते हुए आधुनिक दुनिया में कदम रखना चाहते हैं।

जहां-जहां स्कूल खुले हैं या मोबाइल नेटवर्क पहुंचा है, वहां युवाओं में एक नई ऊर्जा दिखाई देती है। डिजिटल दुनिया अब उनके लिए कोई पराई चीज़ नहीं है। यह पीढ़ी भारत निर्माण की प्रक्रिया में भाग लेना चाहती है।

 

अबूझमाड़: विरोधाभासों की धरती

अबूझमाड़, जिसका अर्थ है "अज्ञात पहाड़ियाँ", छत्तीसगढ़ के नारायणपुर, बीजापुर, बस्तर और दंतेवाड़ा जिलों के साथ-साथ महाराष्ट्र के गडचिरोली ज़िले के कुछ हिस्सों में फैला है। ब्रिटिश शासन के दौरान यह क्षेत्र संवैधानिक रूप से "अलग-थलग" रखा गया और प्रशासनिक रूप से भी उपेक्षित रहा। आज़ादी के बाद भी उपेक्षा जारी रही।

हाल ही के वर्षों तक अबूझमाड़ के कई गांव आधिकारिक नक्शों में नहीं थे। यह क्षेत्र राज्य की उपस्थिति से वंचित रहा है, और माओवादियों के लिए 1980 के दशक से एक प्राकृतिक शरणस्थली बन गया। उन्होंने इसे "मुक्त क्षेत्र" घोषित किया, मुक्त जनता के लिए नहीं, बल्कि हथियारबंद नक्सलियों के लिए।

राज्य की अनुपस्थिति और बुनियादी शासन व्यवस्था की कमी ने अबूझमाड़ को नक्सलवाद के लिए उपजाऊ भूमि बना दिया। यदि कही स्कूल, स्वास्थ्य केंद्र या राशन दुकानें थीं भी, तो वे नाममात्र की थीं। जंगलों के रास्तों पर निर्भरता ने अलगाव को और गहरा किया।

और फिर भी, अबूझमाड़ सांस्कृतिक और जैविक विविधता के साथ-साथ खनिज संसाधनों से भरपूर है। उच्च गुणवत्ता वाला लौह अयस्क, घने वन, और अन्य प्राकृतिक संपदाएं इसकी धरती में छिपी हैं। यह दुखद विरोधाभास है: संसाधनों से समृद्ध इलाका, लेकिन वहां रहने वाले देश के सबसे गरीब समुदायों में शामिल।

 

खनन का लालच और नए शोषण का खतरा

माओवादी प्रभाव कम होने के साथ, खनन कंपनियां अबूझमाड़ की ओर रुख कर सकती हैं। महाराष्ट्र के गडचिरोली ज़िले की  सुरजागड पहाड़ियों में लौह अयस्क खनन पहले ही शुरू हो चुका  है।  यह क्षेत्र भी मुख्य रूप से गडचिरोली जिले के आदिम जनजातीय समूहों द्वारा बसा हुआ है।

ऐसे प्रोजेक्ट रोज़गार का वादा करते हैं, लेकिन पर्यावरण और स्थानीय संस्कृति को गंभीर खतरे में डालते हैं। स्थानीय लोग खनन का विरोध कर रहे हैं, क्योंकि इससे उनके जंगल, ज़मीन और जीवनशैली छिनने का डर है।

हमें यह समझना होगा कि जंगल जनजातियों के लिए केवल संसाधन नहीं हैं; वे उनकी पहचान, संस्कृति और आध्यात्मिकता का हिस्सा हैं। पहाड़ियाँ, नदियाँ, पवित्र उपवनये केवल भूगोल नहीं, बल्कि स्मृतियों और परंपराओं के स्थल हैं।

अनियंत्रित खनन से पूरे गांव उजड़ सकते हैं, जल स्रोत दूषित हो सकते हैं, और वन्यजीव विलुप्त हो सकते हैं। जिन नौकरियों का वादा किया जाता है वे अक्सर अस्थायी और कम वेतन वाली होती हैं, जबकि पर्यावरणीय नुकसान स्थायी होता है। यदि खनन बिना संवेदनशीलता और निगरानी के हुआ, तो यह शोषण का नया रूप बन सकता है।

 

समावेशी और न्यायसंगत विकास की पुकार

अबूझमाड़ का भविष्य बुलडोज़र नहीं, बल्कि जन-संवाद से तय होना चाहिए। जो भी विकास यहां हो, वह समावेशी, न्यायपूर्ण और स्थानीय सहभागिता पर आधारित होना चाहिए। पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों तक विस्तार) अधिनियम, 1996 (PESA) और वन अधिकार अधिनियम, 2006 (FRA) जनजातिय अधिकारों की रक्षा के लिए बनाए गए हैं। उन्हें उनके अक्षरशः और सही भावना में लागू किया जाना चाहिए, ना की कॉर्पोरेट हितों की सुरक्षा के लिए उनकी बलि दी जानी चाहिए।

PESA ग्राम सभाओं को ज़मीन, जंगल उत्पाद और सांस्कृतिक संरक्षण पर निर्णय लेने का अधिकार देता है। FRA जनजाति समुदायों को उस जंगल भूमि पर कानूनी अधिकार देता है जिस पर वे परंपरागत रूप से निर्भर रहे हैं। यदि इन कानूनों को सच्चाई से लागू किया जाए, तो ये सतत विकास की नींव बन सकते हैं।

राज्य सरकारों, ज़िला प्रशासन और कॉर्पोरेट संस्थाओं को जनजाति समुदायों के साथ सच्चे सहयोग की भावना से काम करना होगा। बुनियादी ढांचा परियोजनाओं से पहले सामाजिक और पर्यावरणीय प्रभावों का मूल्यांकन ज़रूरी हैऔर वह भी स्थानीय लोगों की पूर्व, स्वतंत्र और सूचित सहमति के साथ।

विकास का अर्थ केवल सड़कें और खनन परियोजनाएं नहीं होना चाहिए। विकास से अभिप्राय होना चाहिए कि वह इन वंचित समुदायों को स्कूल, अस्पताल, स्वच्छ पानी, सुरक्षित आवास, और गरिमा प्रदान करें। विकास ऐसा हो जो जनजाति जीवनशैली को मिटाए नहीं, बल्कि संरक्षित रखे। यह एक ऐतिहासिक अवसर है। माओवादियों के पतन ने राज्य को अबूझमाड़ में फिर से प्रवेश करने का मौका दिया है, लेकिन बल से नहीं,  बल्कि जनजति समुदायों के विकास के  विश्वास के साथ।

पर हमें सतर्क रहना होगा। जैसा कहा जाता है, “सुरंग के अंत में जो रोशनी दिख रही है, वह किसी आती हुई ट्रेन की हेडलाइट भी हो सकती है।यदि विकास का लक्ष्य केवल मुनाफा हुआ, तो हम ऐसी परिस्तित्यों को उत्पन्न करेंगे कि जिसमे एक अत्याचार दूसरे प्रकार के शोषण एवं उत्पीड़न से बदल जायेगा। अबूझमाड़ एक चौराहे पर खड़ा है। एक रास्ता सशक्तिकरण, शिक्षा और सतत विकास की ओर जाता है। दूसरा विस्थापन, पर्यावरणीय विनाश और सांस्कृतिक हानि की ओर।

आशा है कि हमारा राजनीतिक वर्ग और नीति निर्माता बदलती हुई परिस्थितियों के अनुरूप योग्य निर्णय लेंगे। आशा है कि अबूझमाड़ के जनजति समुदाय जो दशकों से मौन रूप से सब सहते आए है, वे आनेवाले दिनों में अपनी कहानी स्वयं लिखेंगे। उनके जंगल, उनकी पहाड़ियाँ, उनका जीवनहमारी प्रगति की कीमत नहीं बनने चाहिए, बल्कि हमें एक समाज और राष्ट्र के रूप में  जनजातीय विकास में सार्थक योगदान देना चाहिए।

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