जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की माननीय कुलगुरु प्रो. शांतिश्री धूलिपुड़ी पंडित जी ने डॉ. अम्बेडकर इंटरनेशनल सेंटर, नई दिल्ली मे "Dr. Ambedkar's Thoughts on Gender Justice: Decoding the Uniform Civil Code" माने "लिंग सम्बन्धी न्याय पर डॉ. अम्बेडकर के विचार: समान नागरिक संहिता की समझ" इस विषय पर अपने व्याख्यान का अंत 'बृहदारण्यकोपनिषद्' के "ॐ असतो मा सद्गमय।तमसो मा ज्योतिर्गमय।मृत्योर्मामृतं गमय ॥" इस श्लोक से किया. इस श्लोक का अर्थ हैं - मुझे असत्य से सत्य की ओर ले चलो।मुझे अन्धकार से प्रकाश की ओर ले चलो।मुझे मृत्यु से अमरता की ओर ले चलो॥
मेरी कुछ व्यस्तताओं के कारण मेरी तिव्र इच्छा के बावजूद मैं व्यख्यान सुनने प्रत्यक्ष उपस्थित नहीं रह पाया. सुबह "Indian Express" जैसी पत्रिकाओं मे उनके भाषण के बारे मे पढ़ा तो मुझे भी उनका व्याख्यान कुछ अटपटा सा लगा. व्हाट्सप्प पे अनेक मैसेज सर्कुलेट होते देखे एवं पढ़े तो थोड़ा क्रोधित हुआ. फिर "जी न्यूज़" एवं "आज तक" जैसे चैनलों पर डिबेट सुनी तो वहां पर विचार रखनेवालों ने उनका व्याख्यान सुना ही नहीं हैं इसका अंदाजा आ गया. इसलिए मुझे लगा कि प्रो. शांतिश्री जी का पूर्ण व्याख्यान मुझे सुनना ही चाहिए.
डॉ. अम्बेडकर इंटरनेशनल सेंटर के यूट्यूब चैनल पर उनका पूर्ण व्याख्यान अपलोड किया हुआ हैं. आवाज बहोत धीमी हैं परंतु प्रयास करने पर बड़े आराम से सुना जा सकता हैं. मैंने उनका पूर्ण व्याख्यान एकाग्रता से सुना. (व्याख्यान की लिंक https://youtu.be/DsNDpcElqZ4)
इस लेख आरम्भ मे ही मैंने कहा हैं कि प्रो. शांतिश्री जी ने बृहदारण्यकोपनिषद् के श्लोक से अपने व्यख्यान कि समाप्ति क़ी. परंतु मैंने इस लेख के आरम्भ मे ही उनके व्याख्यान समाप्ति के वचनों को उद्धरूत किया और वह इसलिए क़ी प्रो. शांतिश्री जी के व्याख्यान को सुनें बगैर ही जो लोग अनर्गल बाते कर रहे हैं उन्हें असत्य से सत्य और अंधकार से प्रकाश की ओर जाने की आवश्यकता हैं. उसके लिए किसी कठिन साधना की आवश्यकता नहीं हैं. डॉ. अम्बेडकर इंटरनेशनल सेंटर मे प्रो. शांतिश्री जी द्वारा दिये गए पूर्ण व्यख्यान को सुनकर बड़ी आसानी से उसकी सिद्धि प्राप्त हो सकती हैं.
उनके व्याख्यान को पूर्णता से सुनने के उपरांत जो लोग उन्हें वामपंथी अथवा अन्य सारी उपाधियों से आभूषित कर रहे हैं, उनकी सोच कितनी उथली हैं इसका पता चलता हैं. महत्वपूर्ण बात यह हैं कि यह एक ऐसा वर्ग हैं जो सत्य को उसके पूर्णत्व के साथ जाने बगैर ही अपने निष्कर्षों तक पहुँचता हैं. और एक दूसरी जमात हैं जिसके दम्भ की कोई सीमाएं नहीं. अपनी पहचान को आधार बनाते हुए इस वर्ग ने पूरे समुदाय को उनके संकुचित हितों के लिए बंधक बना रखा है. इसलिए यह मेरा मानना हैं कि सही सोच रखनेवाले व्यक्तियों को इन दोनों भी प्रकार के पाखंडी समूहों के सोच-विचार से दरकिनार कर लेना चाहिए. बृहत हिन्दू समाज की एकता, सद्भाव एवं समरसता के लिए ऐसा करना समय की आवश्यकता हैं.
हमारे भगवान ब्राह्मण समुदाय से नहीं हैं इसका तात्पर्य भगवानों को जातियों मे बाँटने से नहीं अपितु सामाजिक समरसता को स्थापित करने से हैं. और यह प्रो. शांतिश्री जी का निजी अन्वेंशन नहीं अपितु हमारी पुरातन एवं सनातन सभ्यता के गहन अधेताओं का मानना हैं. जनजाति समाज मे बड़ा देव, बुड़ा देव अथवा पेरसा पेन इन नामों से अनादि काल से भगवान शिव की अर्चना होती आई हैं. भगवान जगन्नाथ की पूजा एवं रथ को ओढने का पहला अधिकार भी तो जनजाति समाज के लोगों को जाता हैं. आचार्य विनोबा भावे ऋग्वेद को जनजातियों का ग्रन्थ मानते हैं क्योंकि आरण्यक संस्कृति के अनेक आख्यान उसमे उद्धरूत हैं. ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, क्षुद्र एवं जनजाति समाज का प्रतिनिधि निषाद इन पंच जनों का वर्णन ऋग्वेद मे हैं ऐसा वेदों के अभ्यासकों का मानना हैं.
जातिव्यवस्था का वर्णन वेदों मे नहीं एवं वर्ण किसी के जन्म को आधार मानकर नहीं अपितु व्यक्ति के कर्म पर निर्धारित होता था यही तो हम सनातनी कहते आये हैं. आधुनिक समय मे जातियाँ जन्माधारित बनी और हमारे समाज को विखंडित करने का कारण भी बनी. उनमे से जो जाती अपने आप को समाज धुरी मानती हैं और उसे एक सूत्र मे पिरोने का दाइत्व निभाने मे अग्रणी भूमिका मे रही हैं , उसके कुछ व्यक्तियों को इतना आहत होने की क्या आवश्यकता हैं?
अब बात करते हैं दूसरे वर्ग की. इस वर्ग सम्बंधित कुछ व्यक्ति जो सामाजिक गतिशीलता मे ऊपरीले पायदान पर जा बैठे, उन्होंने अपने हितों को अपने वर्ग के हितों के रूप दिखाया. शायद इसलिए बाबासाहब अम्बेडकर कह गए, "मुझे पढ़े लिखें लोगों ने धोखा दिया". प्रो. शांतिश्री जी के व्याख्यान पर चर्चा करते एक दलित चिंतक को मैंने आर्य आक्रमण के सिद्धांत को सही ठहराते हुए सुना. ऐसा करते हुए वह बाबासाहेब का सन्दर्भ दे रहे थे. उन बेचारे को यह पता ही नहीं हैं कि "Who Were Kshudras- क्षुद्र कोन थे" इस किताब मे बाबासाहब ने मानववंश शास्त्र सम्बन्धी तर्क देते हुए 'आर्य आक्रमण सिद्धांत' को पूरी तरहा से नकारा हैं. भारत के संविधान को संविधान समिति के सामने पेश करने के एक दिन पहले याने की 25 नवंबर, 1949 दिये गए उनके भाषण को इस प्रकार के लोगों को सुनना चाहिए कि वे ग्रामर ऑफ़ अनार्की के सन्दर्भ मे क्या कह रहे हैं, वे अपने ही समाज एवं देश से गद्दारी करनेवालों पर क्या टिपणी कर रहे हैं, भारत की पुरातन राजनितिक व्यवस्था एवं परंपराओं के सन्दर्भ मे क्या कह रहे हैं. मैं इस वर्ग के लोगों को अज्ञानी अथवा नादान नहीं मानता. वास्तव मे स्वार्थी, स्वयंकेंद्रित एवं राष्ट्रीय एकता एवं संप्रभूता को बाधित करनेवाली मानसिकता से ग्रसित हैं. कुछतो ऐसी षड़यंत्रकारी ताकतों से मिले हुए हैं. अन्यतः अपने देश मे मूलनिवासी-गैर-मूलनिवासी, आर्य-द्रविड़ ये विचार कैसे पनपते.
इस सब के बावजूद, क्या इस बात को नकारा जा सकता हैं कि जातिगत बुराइयाँ हमारे समाज मे व्याप्त हैं? क्या हमारे समाज के कुछ तबके औपनिवेशीक शासन से स्वाधीनता के 75 वर्षों के पश्चात् भी अत्यंत पिछड़े नहीं रह गए हैं? क्या हमारे समाज मे जातिगत भेद पूरी तरह से समाप्त हो चूका हैं? क्या लिंग भेद एवं स्त्री सबलीकरण पर बात आवश्यक नहीं हैं? हम आँखे मुंद नहीं सकते.
आनेवाले पीढ़ीयों के लिए बेहतर समाज एवं बेहतर देश निर्माण करने की भूमिका हमारे समाज के विविध क्षेत्रों मे कार्यरत धुरिनों को निभानी हैं. इस कार्य मे उन्हें कभी -कभी अप्रिय बातें भी करनी पडती हैं. उससे तात्पर्य समाज को विभाजित करने से नहीं होता अपितु समाज को योग्य दिशा मे विचार करने के लिए बाध्य करने से होता हैं. मुझे लगता हैं जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की माननीय कुलगुरु प्रो. शांतिश्री धूलिपुड़ी पंडित जी ने अपने डॉ. अम्बेडकर इंटरनेशनल सेंटर मे दिये हुए व्याख्यान मे वही किया हैं.
Bahot sunda lekh Guruji!
ReplyDeleteसटीक
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