वैश्विक स्तर पर प्रत्येक वर्ष 9
अगस्त को 'विश्व मूलनिवासी दिवस' के रूप में मनाया जाता है। इस अवसर पर
विश्व के विविध हिस्सों में बसने वाले मूलनिवासियों की सभ्यता, उनके जीवन मूल्य और उनकी परम्पराओं के
नष्ट होने को लेकर पीड़ित मूलनिवासी चर्चा करते है। असंख्य आघातों को सहते हुए भी
वर्तमान में जिन मूल्यों को उन्होंने संजोए रखा है उन्हें कायम रखते हुए, अपने मानवी अधिकारों को बढ़ावा देने एवं
उनकी रक्षा करने को लेकर वे संकल्पित होते है। इस माध्यम से विश्व समुदाय को भी
उनके हितों के संवर्धन के प्रति दाईत्वबोध का अहसास दिलाया जाता है।
विश्व मूलनिवासी दिवस की संकल्पना की जड़ें प्रमुखता से औद्योगिक क्रांति के बाद यूरोपीय औपनिवेशिक ताकतों के द्वारा किये गए आक्रमणों एवं बर्बरता से से जुडी है। इन औपनिवेशिक शक्तियोंने ने अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, अफ्रीका एवं एशिया में बसने वाले विविध मूलनिवासियों, जैसे माया, इनका, एज़टेक लोगों की सभ्यताओं को नष्ट किया। जो कुछ बचे रहे, उन्हें दूरदराज के जंगलों एवं पहाड़ों में छुपकर आश्रय लेना पड़ा। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद जब विश्व समुदाय द्वारा इस प्रकार के अन्यायकारी उपनिवेशवाद का विरोध होने लगा, तब जाकर इन दबे कुचले पीड़ित लोगों को आवाज मिली और उन्होंने अपने आत्मनिर्णय के लिए आवाज उठाना शुरू कर दिया।
विश्व के विविध हिस्सों में बसे मूलनिवासियों के बीच इस तरह की एकजुटता
ने विश्व समुदाय पर उनके अधिकारों, विशिष्ट संस्कृति और जीवन के तरीके को
बनाए रखने के लिए खासा दबाव बनाया। इन्ही बातों को ध्यम में रखते हुए
संयुक्त राष्ट्र की संरचना के भीतर एक सहायक निकाय Working Group on Indigenous Populations (WGIP) की स्थापना 1982 में की गई। विश्व के मूलनिवासी लोगों के मुद्दों पर विचार
करने के लिए स्थापित इस कार्य समूह की पहली बैठक उसी वर्ष जिनेवा में पहली बार
हुई। सयुंक्त राष्ट्र संघ द्वारा स्थापित इस कार्यसमूह के विचार-विमर्श और सिफारिशों के बाद, संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 23 दिसंबर, 1994 को निर्णय लिया कि 9 अगस्त को विश्व के
मूलनिवासी लोगों के अंतर्राष्ट्रीय दिवस के रूप में मनाया जाए।
संयुक्त राष्ट्र महासभा ने अपने प्रस्ताव में
घोषणा की कि विश्व समुदाय 1995-2004
तक विश्व के मूलनिवासी लोगों का पहला
अंतर्राष्ट्रीय दशक मनाएगा। इस दशक का मुख्य उद्देश्य मानव अधिकार, पर्यावरण, विकास, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे क्षेत्रों में मूलनिवासी लोगों द्वारा
सामना की जा रही समस्याओं के समाधान के लिए अंतर्राष्ट्रीय सहयोग को मजबूत करना
था। इसके अलावा, 22 दिसंबर 2004 को महासभा द्वारा अपनाए गए संकल्प के अनुसार, दूसरा अंतर्राष्ट्रीय दशक 1 जनवरी 2005 को शुरू हुआ और दिसंबर 2014 में
समाप्त हुआ। इस दशक के केंद्रित क्षेत्र थे- मूलनिवासियों के प्रति गैर-भेदभाव की
नीतियों को अपनाना और समावेश को बढ़ावा देना, पूर्ण
और प्रभावी भागीदारी को सुनिश्चित करना तथा सांस्कृतिक रूप से उपयुक्त विकास
नीतियों आदि को अपनाना।
भारत मूलनिवासी लोगों के अधिकारों पर संयुक्त
राष्ट्र की घोषणा को मान्यता देता है और उसका समर्थन करता है। परन्तु भारतीय परिप्रेक्ष में, यहाँ के सभी नागरिक मूलनिवासी है यही
भूमिका इस मुद्दे को लेकर भारत की रही है। इस लिए
'मूलनिवासी' की यह अंतर्राष्ट्रीय अवधारणा भारतीय संदर्भ पर लागू नहीं होती। भारत
ने अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन द्वारा लाए गए विश्व मूलनिवासी लोगों के कन्वेंशन(Indigenous
and Tribal Peoples Convention, 1989) के संबंध में वही प्रस्तुतियाँ दी हैं
जिसपर 1989 से अनुसमर्थन (ratification ) की प्रक्रिया का प्रारम्भ हुआ।
मूलनिवासी लोगों की
संकल्पना के वर्णन की पृष्ठभूमि में भारत की भूमिका को समझना आवश्यक है।
अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के द्वारा प्रायोजित मूलनिवासी लोगों के कन्वेंशन के
अनुच्छेद 1 (a) में उन्हें राष्ट्रीय समुदाय के अन्य
वर्गों की तुलना में उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थितियों में कम उन्नत के रूप में
वर्णित किया गया है। आगे अनुच्छेद 1 (b) में
कहा गया है कि उपनिवेशवादी ताकतों द्वारा पराजित होने के पहले वे,
उनके
देश या भौगोलिक क्षेत्र में अधिवासित मूल निवासियों के वंशज हैं और उनकी सामाजिक,
आर्थिक
और सांस्कृतिक संस्थाएं बाहर से आने वाले लोगों से भिन्न हैं।
मूलनिवासियों की
अवधारणा के इस विवरण से, यह
बिल्कुल स्पष्ट है कि भारत में इस्लामी आक्रमणों और उनके शासन के पूर्व अथवा
आधुनिक समय में ब्रिटिश उपनिवेशवाद से पहले ऐसे इतिहास के कोई प्रमाण नहीं
है। इसके विपरीत कस्बों, गांवों, जंगलों और पहाड़ियों में रहने वाले
लोगों के बीच सामंजस्यपूर्ण सह-अस्तित्व और सांस्कृतिक आदान-प्रदान के कई प्रमाण
भारतीय ऐतिहासिक परंपरा में मिलते है। आर्य आक्रमण सिद्धांत जैसे औपनिवेशिक
सिद्धांतों के आविष्कार का पर्दाफाश कई
इतिहासकारों और पुरातत्वविदों ने किया है।
वेद,
पुराण,
उपनिषद,
रामायण
और महाभारत ऐसे उपाख्यानों से परिपूर्ण हैं जो नागर और आरण्यक संस्कृतियों के
अंतर्संबंध को चित्रित करते हैं। आचार्य विनोबा भावे ने ऋग्वेद को जनजातियों का
ग्रंथ माना। कई विद्वानों का मानना है कि ऋग्वेद में वर्णित 'पंचजनों'
में
ब्राह्मण,
क्षत्रिय,
वैश्य,
शूद्र
और निषाद- जो जनजाति समुदाय के प्रतिनिधि
थे और उन्हें समान दर्जा प्राप्त था। साबरा या सावरा के संदर्भों का वर्णन ऐतरेय
ब्राह्मण मिलता है। नगरवासी और वनवासियों के मध्य में स्थित कई स्नेह और
मैत्रीपूर्ण विवरण प्राचीन संस्कृत साहित्य जैसे पंचतंत्र,
कथासरित
सागर,
विष्णु
पुराण आदि में पाए जाते हैं। भारत के जनजातीय विषयों के एक प्रमुख विद्वान वेरियर
एल्विन ने भारत के सन्दर्भ में जनजातियों के योगदान के बारे में शबरी,
जिन्होंने
भगवन श्रीराम को फल अर्पित किए, का
उदहारण देते हुए कहा है “a
symbol of the contributions that tribes can and will make to the life of
India”.
रामायण में जनजाति समुदाय
का बहुत ही महत्वपूर्ण और सम्मानजनक स्थान था। रामायण में वाली और सुग्रीव को
जनजाति समाज के सबसे पराक्रमी राजाओं के रूप में वर्णित किया गया है। अनेक जनजाति
राजाओं एवं राजपुत्रों का वर्णन महाभारत के युद्ध में भाग लेने के लिए किया गया
है। भील जनजाति समुदाय से संबंधिति एकलव्य को एक आदर्श शिष्य एवं महान बलिदानी के रूप में वर्णित किया गया है।
महाभारत में पांडवों और कौरवों के दोनों पक्षों से लड़ने वाले जनजाति राज्यों और
योद्धाओं का पर्याप्त वर्णन है। भीम का पुत्र घटोत्कच,
जो
युद्ध में वीरता का प्रदर्शन करता है, उसकी
जनजाति पत्नी हिंडिम्बा का पुत्र है, अर्जुन
ने नागा जनजाति की राजकुमारी उलूपी से
विवाह किया।
भारत के मध्ययुगीन और
आधुनिक इतिहास में पर्याप्त प्रमाण हैं, जब
जनजाति समुदायों के लोगों ने धर्म और राष्ट्र की रक्षा में महाराणा प्रताप,
छत्रपति
शिवाजी महाराज और तात्या टोपे के साथ कंधे से कंधा मिलाकर लड़ाई लड़ी थी। इसके
अलावा,
भारत
के कई हिस्सों में वे अंग्रेजों के खिलाफ उठ खड़े हुए और स्वतंत्रता के लिए भारत
के संघर्ष में शामिल हो गए। अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह के नायक झारखंड के भगवान
बिरसा मुंडा, महाराष्ट्र के उमाजी नाइक,
मध्य
प्रदेश के टंट्या भील, आंध्र प्रदेश के
अल्लूरी सीताराम राजू ,नागालैंड की रानी गैदिनल्यू, अरुणाचल
प्रदेश के मतमूर जामोह, गारो हिल्स,
मेघालय
के पा तोगन संगमा के योगदान को कैसे भुलाया जा सकता है?
उपरोक्त उदाहरणों से
पता चलता है कि भारत में जनजातीय लोगों की अन्य लोगों की तरह समान मित्र और शत्रु
की धारणाएँ हैं। प्राचीन और मध्यकाल में जिन जनजाति समुदायों की बात की जाती रही
है,
वे
आज नगरीय समाज में घुल मिल जाने के कारन अस्तित्व में नहीं है। मध्य युग में कई राजपूत राजा इस्लामी शासकों के
अत्याचार से बचने के लिए दुर्गम वन क्षेत्रों में चले गए और जनजाति बन गए। उदाहरण
के लिए,
चंदेला
राजपूत राजकुमारी रानी दुर्गावती ने गढ़ा मंडला के गोंड जनजाति के राजा दलपत शाह
से विवाह किया और मुगलों के विरूद्ध लड़ाई लड़ी। इस लिए प्रसिद्ध समाजशास्त्री जी. ऐस. घुर्ये लिखते है, “Though for the sake of
convenience they may be designated as the tribal classes of Hindu society,
suggesting thereby the social fact that they have retained much more of the
tribal creeds and organizations than many of the other castes of the society
yet, in reality, they are backward Hindus”.
इसलिए, हम भारत के लोग अमेरिका,
ऑस्ट्रेलिया
और दुनिया के कई अन्य हिस्सों के मूलनिवासी आबादी के साथ सद्भावना रखते है। उनपर किए गए अत्याचारों एवं
जातिय संहार जैसे औपनिवेशिक बर्बरता का पुरजोर विरोध करते है। भारत में भी
इस्लामिक आक्रमण एवं ब्रिटिश राज के कारण वास्तव में हमारे समाज का एक हिस्सा
पिछड़ गया है। स्वाधीनता के पश्चात् संविधान में पांचवी अनुसूची और छटवी अनुसूची जैसे प्रावधानों से
भारतीय जनजातियों के समाज जीवन एवं उनके सामाजिक एवं आर्थिक विकास के पहलुओं पर
कार्य करने के प्रयास किए गए है। पंचायत
उपबंध (अनुसूचित क्षेत्रों पर विस्तार) अधिनियम, 1996, अनुसूचित
जनजाति और अन्य परंपरागत वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम,
2006 आदि कानूनों के माध्यम से भारत सरकार
द्वारा प्रयास किए जा रहे है। अभी और बहोत कुछ करना शेष है परन्तु मूलनिवासी दिवस
जैसे अवसरों का हमारे ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक परिवेश में औचित्य नहीं है। भारत
में मूलनिवासी दिवस जैसे कार्यक्रम का आयोजन अप्रासंगिक एवं अनुचित भी है।
समुदायों के बिच कृत्रिम दरार और कलह के वातावरण को बढ़ावा देनेवाले ऐसे समारोहों
को सिरे से नकारना हम सब का आवश्यक दाइत्व बनता है।
2021 से प्रति वर्ष
15 नवंबर को मनाया जाने वाला "जनजातीय गौरव दिवस" वास्तव में, भारत के सामाजिक ताने-बाने को जीवित
रखने में जनजाति समाज के योगदानों को मनाने का उत्सव का दिन है। भारतीय मूल्यों को
अक्षुण्ण रखने में उनका साहस, शौर्य
और बलिदान अतुलनीय है।