Thursday, 14 October 2021

राष्ट्रऋषि श्रद्धेय स्व दत्तोपंत ठेंगड़ी जी (१९२०-२००४)


अहिंसावादी क्रांतिकारीओं की कार्यपद्धति पूर्णतया भिन्न होती है. वे इस बात को नहीं मानते की यदि ध्येय अच्छा हो तो कोई भी साधन अपनाया जा सकता है. अपनी अंतिम अनिवार्य विजय का उन्हें दृढ विश्वास होता है. क्योंकि उनकी धरना में सत्य की (ईश्वर की) विजय होती है. वे मानते है क़ि जो पराजित होने से अस्वीकार कर देते हैवे कभी पराजित नहीं हो सकते. सत्य के संघर्ष में कोई असफलता नहीं हो सकतीआंशिक असफलताएं हो सकती है.

 

उनका दृढ विश्वास होता है क़ि किसी व्यक्ति पर उसकी स्वैच्छिक सहमति के बिना लम्बे समय तक शासन नहीं किया जा सकता. वे व्यक्ति का हिंसा द्वारा उसका शारीरिक विनाश नहीं परन्तु प्रायश्चित द्वारा शनै:शनै शुद्धिकरण चाहते है. अहिंसक क्रांति के पूर्व अनिवार्यतः क्रन्तिकारी जन जागरण होता है जिसे श्री अरविन्द "पैसिव रेजिस्टेंस" (सहन प्रतिरोध) कहते है. लोकमान्य तिलक क़ि चतुसुत्री और महात्मा गाँधी के सत्याग्रहआदि में संघर्ष के साथ-साथ जनजागरण भी अभिप्रेत था. उनका आधार था जन संघर्ष के द्वारा जन जागरण और जन जागरण के द्वारा जन संघर्ष.                           

                                    श्रद्धेय . बा. ठेंगड़ी   ('संकेत रेखापृ.342 )

 श्रद्धेय स्व. दत्तोपंत ठेंगड़ी जैसे मनीषी, साधुचरित पुरुषोत्तम राष्ट्र जीवन मे विरले ही होते है. सादा जीवन, गहन अध्ययन और चिंतन, विचारों की स्पष्टता, दृढ़ विश्वास और लक्ष्य प्राप्ति के लिए अदम्य उत्साह इन सभी सद्गुणों का प्रतिक उनका जीवन एवं कार्य रहे है।उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत इस स्वामी विवेकानंद के उपदेशात्मक वचनों में एक सूत्रवाक्य का उन्होंने आजीवन पालन किया।

 उनको श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए भारत के भूतपूर्व प्रधानमंत्री स्व अटल जी ने कहा था….. 

मेरा ठेंगडी जी से पुराना नाता रहा है. मैं भोपाल की बैठक में उपस्थित था जिसमें "भारतीय मजदुर संघ" (बी एम् ऐस) बनाने का निर्णय लिया गया था. इस नए संगठन का नाम तय करने के लिए चर्चा के दौरान, ठेंगडीजी ने "श्रमजीवी संगठन" इस नाम का सुझाव किया था. परन्तु इस संगठन का नाम सरल एवं सार्थक होना चाहिए इस बात को ध्यान में रखते हुए  "भारतीय मजदुर संघ" रखा गया. मुझे लगता है कि ट्रेड यूनियनवाद आज संकट का सामना कर रहा है. श्रमिकों के हितों की रक्षा की जानी चाहिए लेकिन साथ ही साथ देश के हित को भी ध्यान में रखना चाहिए. श्रमिक आंदोलन संकट में है और बदलते परिदृश्य में चीजों को कैसे संतुलित किया जाए, इस पर सकारात्मक विचार किये जाने की आवश्यकता है. ठेंगडीजी ने जो कुछ भी लिखा है उसे हम सभी को पढ़ना चाहिए. मुझे लगता है उनका लेखन एवं विचार लंबे समय तक हमारा मार्गदर्शन करेंगे”.       

मैं 2001मे ग्यारहवीं कक्षा की पढ़ाई करते समय गडचिरोली के संघ कार्यालय मे रहता था. मराठी मे प्रकाशित होनेवाली विवेक मासिक मैं नियमितता से पढता था. उसमे और अन्य पत्रिकाओं मे दत्तोपंत जी के लेख और भाषण मैं पढ़ने की कोशिश करता था. उन दिनों स्वदेशी जागरण मंच का काम महारष्ट्र मे अच्छी गती पकड़ राहा था. दो तीन  साल पहले ही हमने खुली अर्थ व्यवस्था(भूमण्डलीकरण, उदारीकरण  और निजीकरण) का स्वीकार किया था. देश के सामने डंकेल प्रस्ताव, वैश्विक व्यापार सगठन की शर्ते ऐसे कई आवाहन खड़े थे. इन विषयों पर उनके लेख, भाषण, शोधपत्र  नियमितता से प्रकाशीत होते थे. उस आयु मे बहोत ज्यादा तो कुछ समझ नहीं पाता था परन्तु निश्चित रूप से मेरी जिज्ञासा इन अंतरराष्ट्रीय मुद्दों को लेकर जागृत हुई थी. आगे चलकर मैंने जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से एम. . (आंतरराष्ट्रीय सम्बन्ध) एवं एम. फील. (आंतरराष्ट्रीय संगठन) मे किया. इस तरह से उनके बौद्धिक कार्यका मै मेरे निजी जीवन मे लाभार्थी हू.

सैद्धांतिक बौद्धिकता एवं वास्तविक कामों मे सक्रियता इन क्वचित पाए जाने वाले गुणों का मूर्तरूप श्रद्धेय ठेंगड़ीजी थे. उन्होंने अपने जीवन काल मे भारतीय मजदूर संघ, स्वदेशी जागरण मंच, भारतीय किसान संघ, सामाजिक समरसता मंच, सर्व पंथ समादर मंच, पर्यावरण मंच की केवल स्थापना ही नहीं अपितू उनको भारत वर्ष के हर कोने तक पहुँचाने का कार्य किया. उन्ही के कार्य, प्रेरणा एवं अथक मार्गदर्शन के कारन यह संगठन केवल राष्ट्र प्रवर्तन के वाहक बने, वे सभी राष्ट्र के समर्थ प्रहरी भी बनेइसीके साथ वे अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, भारतीय अधिवक्ता परिषद, अखिल भारतीय ग्राहक पंचायत एवं भारतीय विचार केंद्र इन सगठनों के संस्थापक सदस्य भी रह चुके है. ये हुई उनके धरातल पर काम करने की बात. परन्तु उनका व्यक्तित्व इतने तक ही समिति नहीं रहा. वास्तव मे स्वामी विवेकानंद, श्री अरविन्द, श्री गुरूजी एवं दिन दयाल उपाध्याय जी जैसे राष्ट्र ऋषियों की चिंतन की श्रृंखला मे बसने वाले वे महान चिंतक भी थे. उन्होंने लगभग 200 से अधिक छोटी-बड़ी पुस्तके लिखी, सैकड़ो प्रतिवेदन प्रकाशित किये तथा उनके हजारों की संख्या में आलेख पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हैं.

संघ के प्रचारक होने के नाते कुशल संगठक होना उनके स्वाभाव की विशेषता रही. उनके जीवन का लम्बा समय केरल और पश्चिम बंगाल मे काम करने मे भी बिता. अतः वे जहा भी गए वहा के कार्यकर्ताओं एवं नागरिकों को अपने ही मे से एक प्रतीत हुए. मराठी, हिंदी, अंग्रेजी के साथ साथ मल्यालम एवं बंगाली भाषा पर भी उनका  प्रभुत्व था. उनपर लिखें हुए संस्मरण पढ़ने पर पता चलता हैं की वे अजात शत्रु थे.उन्होंने अपने भावविश्व का परिघ केवल अपने ही कार्यकर्ताओं तक सिमित नहीं रखा अपितू वे विपरीत विचारों के कार्यकर्त्ता एवं लोगों के साथ भी उतनेही सहजता के साथ संवाद करते थे. भारत की सनातन विचार परंपरा के साथ अन्य ज्ञान परम्पराओं के गहन अद्धेता एवं चिंतक तो वे थे ही पर कार्ल मार्क्स से लेकर उमर ख़य्याम की रुबाइयों तक पुराने एवं अद्ययावत साहित्य का अध्ययन भी उन्होंने किया था. राज्यसभा मे सांसद के नाते भी उन्होंने भारतीय राजनीतिक परिदृश्य मे सकारत्मक राजनीती की अमीट छाप छोड़ी. 

मैंने उनके समय समय पर लिखें हुए लेख और भाषणों को संकलित कर प्रकाशित "तीसरा विकल्प" यह पुस्तक पढ़ी है. उसमे  न्यायवावस्था, संविधान, स्वदेशी के विविध आयाम, अर्थशास्त्र की हिन्दू संकल्पना, औद्योगिक नीतियाँ, आधुनिकीकरण और उसमे डूबते-उतरते अर्थसंकल्प, पर्यावरणतकनिकी परिवर्तन के साथ स्वयंरोजगार की कल्पना इन विषयों का गहन चिंतन हैं. श्रद्धेय दत्तोपंतजी केवल समस्याओं को उजागर कर ठिठकते नहीं बल्कि उन समस्याओं का समाधान और उस दिशा मे संभानाओं पर भी अधिकरवानी से विषय विवेचन करते हैं.

एक महान चिंतक, सक्षम नेता, उत्कृष्ठ संगठक इन दुर्लभ विषेशताओं से सम्पन्न राष्ट्रऋषि की आज  18वी पुण्यतिथि है. उनके विचार एवं कार्य से प्रेरणा लेकर उनके दिखाए पथ पर मार्गक्रमण करना ही उनको सच्ची श्रद्धांजली होंगी.

 

 




Friday, 8 October 2021

Revered Jagdev Ram Jee’s Life, Work and His Legacy

 

Swargiya Jagdev Ram Oroan Jee (9 October 1949- 15 July 2020)

Revered Jagdev Ram Oroan Jee, the former president of Akhil Bhartiya Vanvasi Kalyan Ashram (ABVKA) is the embodiment of Bhartiya values. His life and work that spanned for around seventy-one years touched many thousand lives of our brethren living in forests and hills like very few others did. He was born on 9 October 1949 and left for heavenly abode on 15 July 2020 at ABVKA’s National Office at Jashpur, his workplace at least for a half-century. 

Jagdev Ram Uroan Jee was born to Aghnu Ram and Buchhubai. He was the eldest of four daughters and three sons of his parents. He started attending RSS Shakhas, the morning and evening gatherings of swayansevaks (volunteers) at an early age. He did his Master of Arts (M.A.) and acquired a degree in Physical Education. Having come from janjati community himself, it was quite easy for him to get a government job in those days and start a normal family life but he chose to live the life of a hermit.

He remained National President of ABVKA for twenty-five years after inheriting the mantle from his master revered Vanvyogi Balasaheb Deshpande Jee. He truly lived up to the trust and confidence with which the baton was passed on to him by his master. Though he belonged to a poor janjati family in Komdo village in Jashpur Nagar district of today’s Chhattisgarh state, he did not confine himself to the worries of hearth and home. He remained unmarried and dedicated all his life to the cause of janjati communities of Bharat.

The far-flung and inaccessible areas of today’s Chhattisgarh and Jharkhand primarily inhabited by janjatis had remained much underdeveloped. Poverty, illiteracy due to lack of schools and immense scarcity of health facilities were all-pervasive in the region. The situation was rendered a fertile ground for evangelical missions who were fervently carrying on with their activities of converting janjatis into the Christian fold taking advantage of their poverty and innocence. It was in this backdrop that Pt. Ravi Shankar Shukla, the then Chief Minister of Central Provinces (today’s Madhya Pradesh and Chhattisgarh) visited the region in the late 1940s.

In this visit, he was welcomed everywhere but was shown black flags and asked to go back when he reached Jashpur. His experiences in this visit exposed him to unimaginable backwardness and massive conversion so prevalent among people. This made him think to assuage the suffering and anguish of people by coordinating with revered Thakkar Bappa, a well-known Gandhian who had extensively worked in the janjati areas. Very soon social welfare department was established and Balasaheb Deshpande Jee joined the same in 1948. After Thakkar Bappa’s death in January 1951, Balasaheb found it difficult to carry on with janjati development activities due to administrative pulls and pressures. This made him think that there was a need to carry on with his developmental projects for janjati communities in the area independently leading to the establishment of Vanvasi Kalyan Ahram on 26 December 1952.

In 1977 at Surat Meet of Vanvasi Kalyan Ashram, Babasaheb Deshpande Jee decided to expand the organization's activities all over Bharat. Thus Vanvasi Kalyan Ashram became Akhil Bhartiy Vanvasi Kalyan Ashram. Since then Shri Jagdev Ram Jee started traveling with his mentor. In 1985, he was made a member of ABVKA's National Committee, and further in 1987 Vice- President, Babasaheb being the President. Two years before passing away in 1995, Balasaheb nominated Jagdev Ram Jee as the National Working President of ABVKA at its Cuttack National Convention in 1993. The relationship between Balasaheb and Jagdev Ram Jee is embodied in the Guru-Shishya tradition of Bharat like that of Swami Ramkrishna Paramhans and Swami Vivekananda.

Since the time Jagdev Ram Jee became president of ABVKA, he played an important role in developing the plant of Vanvasi Kalyan Ashram sown by his master Balasaheb into a banyan tree. At present ABVKA is the largest organization in Bharat working for the overall development of janjatis that covers aspects such as education, health, sports, village development, skill development, youth development, women empowerment, self-help groups, protecting janjatis’ constitutional rights and so on all over Bharat. The organization that was started with its first project having only 13 janjati children enrolled to be educated with hostel facilities, presently has 20,000 projects in 323 districts with footprints in more than 52,000 villages.

Jagdev Ram Jee Revered by thousands of Karykartas across Bharat.

His life was one devoted to the cause of janjatis of Bharat and he lived to see that happen. He was a staunch believer that the janjatis are very much an integral part of Bharat’s socio-cultural fabric since time immemorial. Therefore, he traveled tirelessly from north to south and east to west invoking the thought that we all are one and our destinies are intrinsically interwoven. His contributions in the successful organization of Shabri Kumbh in the Dang District of Gujrat in 2006 in which hundreds and thousands of janjatis from all over Bharat participated are immense. Similarly, he exuberantly participated along with the ocean of janjati people from all over the country in Ardha Kumbh Mela at Ujjain and Mahakumbh Mela at Prayag.

Jagdev Ram Jee was equally concerned about reinvigorating the cultural heritage of janjatis. For example; he started Rohtas fort pilgrimage located in the Son River Valley, in the small town of Rohtas in Bihar. The Oraon janjati owes their origin to this fort and its surroundings. People from Assam, Chhattisgarh, Jharkhand, Madhya Pradesh, Uttar Pradesh, Maharashtra, Bengal, etc. are participating in this pilgrimage for many years now. It was in his leadership that ABVKA made rapid strides and became more vocal in the public discourse by bringing in a ‘Vision Document’ for socio-economic-cultural development in 2015. He was very crucial in bringing the final draft of the document in consultation with activists, policymakers, and academicians from across the country. All his life, he remained at the forefront in bringing various aspects of janjati issues to the notice of constitutional authorities and policymakers and insisted on their timely resolution.

Despite being such a man of stature, his demeanor was that of simplicity, care, affection, and compassion towards everyone he met. It’s because of these traits of his personality, he could easily connect with thousands karykartas, men, women, and children alike. He certainly is the strongest pillar of ABVKA that has grown leaps and bounds in every nook and corner of the country.

He lived and dedicated all his life to the cause of janjatis but his legacy is not confined to a particular community. Moreover, the thoughts and deeds of great men must not be kept limited to a particular segment of society. The impact of their life’s work is pan-national, across all communities. Therefore, their legacy must be re-invoked and presented to this and coming generations so that we learn to trade the path that men like Jagdev Ram Jee have created for us to follow.

Tuesday, 3 August 2021

क्या विश्व मूलनिवासी दिवस भारत के सन्दर्भ में मायने रखता है ?

उत्तरी केन्या के मूलनिवासी लोग

वैश्विक स्तर पर प्रत्येक वर्ष 9 अगस्त को 'विश्व मूलनिवासी दिवस' के रूप में मनाया जाता है। इस अवसर पर विश्व के विविध हिस्सों में बसने वाले मूलनिवासियों की सभ्यता, उनके जीवन मूल्य और उनकी परम्पराओं के नष्ट होने को लेकर पीड़ित मूलनिवासी चर्चा करते है। असंख्य आघातों को सहते हुए भी वर्तमान में जिन मूल्यों को उन्होंने संजोए रखा है उन्हें कायम रखते हुए, अपने मानवी अधिकारों को बढ़ावा देने एवं उनकी रक्षा करने को लेकर वे संकल्पित होते है। इस माध्यम से विश्व समुदाय को भी उनके हितों के संवर्धन के प्रति दाईत्वबोध का अहसास दिलाया जाता है।  

विश्व मूलनिवासी दिवस की संकल्पना की जड़ें प्रमुखता से औद्योगिक क्रांति के बाद यूरोपीय औपनिवेशिक ताकतों के द्वारा किये गए आक्रमणों एवं बर्बरता से से जुडी है। इन औपनिवेशिक शक्तियोंने ने अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, अफ्रीका एवं एशिया में बसने वाले विविध मूलनिवासियों, जैसे माया, इनकाएज़टेक लोगों की सभ्यताओं को नष्ट किया। जो कुछ बचे रहे, उन्हें दूरदराज के जंगलों एवं पहाड़ों में छुपकर आश्रय लेना पड़ा। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद जब विश्व समुदाय द्वारा इस प्रकार के अन्यायकारी उपनिवेशवाद का विरोध होने लगा, तब जाकर इन दबे कुचले पीड़ित लोगों को आवाज मिली और उन्होंने अपने आत्मनिर्णय के लिए आवाज उठाना शुरू कर दिया।

विश्व के विविध हिस्सों में बसे मूलनिवासियों के बीच इस तरह की एकजुटता ने  विश्व समुदाय पर उनके अधिकारों, विशिष्ट संस्कृति और जीवन के तरीके को बनाए रखने के लिए  खासा दबाव बनाया। इन्ही बातों को ध्यम में रखते हुए संयुक्त राष्ट्र की संरचना के भीतर एक सहायक निकाय Working Group on Indigenous Populations (WGIP) की स्थापना 1982 में की गई। विश्व के मूलनिवासी लोगों के मुद्दों पर विचार करने के लिए स्थापित इस कार्य समूह की पहली बैठक उसी वर्ष जिनेवा में पहली बार हुई। सयुंक्त राष्ट्र संघ द्वारा स्थापित इस कार्यसमूह  के विचार-विमर्श और सिफारिशों के बाद, संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 23 दिसंबर, 1994 को निर्णय लिया कि 9 अगस्त को विश्व के मूलनिवासी लोगों के अंतर्राष्ट्रीय दिवस के रूप में मनाया जाए।

संयुक्त राष्ट्र महासभा ने अपने प्रस्ताव में घोषणा की कि विश्व समुदाय 1995-2004 तक विश्व के मूलनिवासी लोगों का पहला अंतर्राष्ट्रीय दशक मनाएगा। इस दशक का मुख्य उद्देश्य मानव अधिकार, पर्यावरण, विकास, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे क्षेत्रों में मूलनिवासी लोगों द्वारा सामना की जा रही समस्याओं के समाधान के लिए अंतर्राष्ट्रीय सहयोग को मजबूत करना था। इसके अलावा, 22 दिसंबर 2004 को महासभा द्वारा अपनाए गए संकल्प के अनुसार, दूसरा अंतर्राष्ट्रीय दशक 1 जनवरी 2005 को शुरू हुआ और दिसंबर 2014 में समाप्त हुआ। इस दशक के केंद्रित क्षेत्र थे- मूलनिवासियों के प्रति गैर-भेदभाव की नीतियों को अपनाना और समावेश को बढ़ावा देना, पूर्ण और प्रभावी भागीदारी को सुनिश्चित करना तथा सांस्कृतिक रूप से उपयुक्त विकास नीतियों आदि को अपनाना।

भारत मूलनिवासी लोगों के अधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र की घोषणा को मान्यता देता है और उसका समर्थन करता है।  परन्तु भारतीय परिप्रेक्ष में, यहाँ के सभी नागरिक मूलनिवासी है यही भूमिका इस मुद्दे को लेकर भारत की रही है। इस लिए  'मूलनिवासी' की यह अंतर्राष्ट्रीय  अवधारणा भारतीय संदर्भ पर लागू नहीं होती। भारत ने अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन द्वारा लाए गए विश्व मूलनिवासी लोगों के कन्वेंशन(Indigenous and Tribal Peoples Convention, 1989) के संबंध में वही प्रस्तुतियाँ दी हैं जिसपर 1989 से अनुसमर्थन (ratification ) की प्रक्रिया का प्रारम्भ हुआ।

मूलनिवासी लोगों की संकल्पना के वर्णन की पृष्ठभूमि में भारत की भूमिका को समझना आवश्यक है। अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के द्वारा प्रायोजित मूलनिवासी लोगों के कन्वेंशन के अनुच्छेद 1 (a) में उन्हें राष्ट्रीय समुदाय के अन्य वर्गों की तुलना में उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थितियों में कम उन्नत के रूप में वर्णित किया गया है। आगे अनुच्छेद 1 (b) में कहा गया है कि उपनिवेशवादी ताकतों द्वारा पराजित होने के पहले वे, उनके देश या भौगोलिक क्षेत्र  में अधिवासित  मूल निवासियों के वंशज हैं और उनकी सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक संस्थाएं बाहर से आने वाले लोगों से भिन्न हैं।

मूलनिवासियों की अवधारणा के इस विवरण से, यह बिल्कुल स्पष्ट है कि भारत में इस्लामी आक्रमणों और उनके शासन के पूर्व  अथवा  आधुनिक समय में ब्रिटिश उपनिवेशवाद से पहले ऐसे इतिहास के कोई प्रमाण नहीं है। इसके विपरीत कस्बों, गांवों, जंगलों और पहाड़ियों में रहने वाले लोगों के बीच सामंजस्यपूर्ण सह-अस्तित्व और सांस्कृतिक आदान-प्रदान के कई प्रमाण भारतीय ऐतिहासिक परंपरा में मिलते है। आर्य आक्रमण सिद्धांत जैसे औपनिवेशिक सिद्धांतों के आविष्कार का पर्दाफाश कई  इतिहासकारों और पुरातत्वविदों ने किया है।

माता शबरी भगवन श्रीराम को फल अर्पण करते हुए 

वेद, पुराण, उपनिषद, रामायण और महाभारत ऐसे उपाख्यानों से परिपूर्ण हैं जो नागर और आरण्यक संस्कृतियों के अंतर्संबंध को चित्रित करते हैं। आचार्य विनोबा भावे ने ऋग्वेद को जनजातियों का ग्रंथ माना। कई विद्वानों का मानना ​​है कि ऋग्वेद में वर्णित 'पंचजनों' में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और निषाद- जो जनजाति  समुदाय के प्रतिनिधि थे और उन्हें समान दर्जा प्राप्त था। साबरा या सावरा के संदर्भों का वर्णन ऐतरेय ब्राह्मण मिलता है। नगरवासी और वनवासियों के मध्य में स्थित कई स्नेह और मैत्रीपूर्ण विवरण प्राचीन संस्कृत साहित्य जैसे पंचतंत्र, कथासरित सागर, विष्णु पुराण आदि में पाए जाते हैं। भारत के जनजातीय विषयों के एक प्रमुख विद्वान वेरियर एल्विन ने भारत के सन्दर्भ में जनजातियों के योगदान के बारे में शबरी, जिन्होंने भगवन श्रीराम को फल अर्पित किए, का उदहारण देते हुए कहा है “a symbol of the contributions that tribes can and will make to the life of India”.

रामायण में जनजाति समुदाय का बहुत ही महत्वपूर्ण और सम्मानजनक स्थान था। रामायण में वाली और सुग्रीव को जनजाति समाज के सबसे पराक्रमी राजाओं के रूप में वर्णित किया गया है। अनेक जनजाति राजाओं एवं राजपुत्रों का वर्णन महाभारत के युद्ध में भाग लेने के लिए किया गया है। भील जनजाति समुदाय से संबंधिति एकलव्य को एक आदर्श शिष्य एवं महान  बलिदानी के रूप में वर्णित किया गया है। महाभारत में पांडवों और कौरवों के दोनों पक्षों से लड़ने वाले जनजाति राज्यों और योद्धाओं का पर्याप्त वर्णन है। भीम का पुत्र घटोत्कच, जो युद्ध में वीरता का प्रदर्शन करता है, उसकी जनजाति पत्नी हिंडिम्बा का पुत्र है, अर्जुन ने नागा जनजाति की  राजकुमारी उलूपी से विवाह किया।

भगवन बिरसा मुंडा 

भारत के मध्ययुगीन और आधुनिक इतिहास में पर्याप्त प्रमाण हैं, जब जनजाति समुदायों के लोगों ने धर्म और राष्ट्र की रक्षा में महाराणा प्रताप, छत्रपति शिवाजी महाराज और तात्या टोपे के साथ कंधे से कंधा मिलाकर लड़ाई लड़ी थी। इसके अलावा, भारत के कई हिस्सों में वे अंग्रेजों के खिलाफ उठ खड़े हुए और स्वतंत्रता के लिए भारत के संघर्ष में शामिल हो गए। अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह के नायक झारखंड के भगवान बिरसा मुंडा, महाराष्ट्र के उमाजी नाइक, मध्य प्रदेश के टंट्या भील, आंध्र प्रदेश के अल्लूरी सीताराम राजू ,नागालैंड की  रानी गैदिनल्यू, अरुणाचल प्रदेश के मतमूर जामोह, गारो हिल्स, मेघालय के पा तोगन संगमा के योगदान को कैसे भुलाया जा सकता है?

उपरोक्त उदाहरणों से पता चलता है कि भारत में जनजातीय लोगों की अन्य लोगों की तरह समान मित्र और शत्रु की धारणाएँ हैं। प्राचीन और मध्यकाल में जिन जनजाति समुदायों की बात की जाती रही है, वे आज नगरीय समाज में घुल मिल जाने के कारन अस्तित्व में नहीं है।  मध्य युग में कई राजपूत राजा इस्लामी शासकों के अत्याचार से बचने के लिए दुर्गम वन क्षेत्रों में चले गए और जनजाति बन गए। उदाहरण के लिए, चंदेला राजपूत राजकुमारी रानी दुर्गावती ने गढ़ा मंडला के गोंड जनजाति के राजा दलपत शाह से विवाह किया और मुगलों के विरूद्ध लड़ाई लड़ी। इस लिए प्रसिद्ध समाजशास्त्री  जी. ऐस. घुर्ये लिखते है, “Though for the sake of convenience they may be designated as the tribal classes of Hindu society, suggesting thereby the social fact that they have retained much more of the tribal creeds and organizations than many of the other castes of the society yet, in reality, they are backward Hindus”.

इसलिएहम भारत के लोग अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और दुनिया के कई अन्य हिस्सों के मूलनिवासी आबादी के साथ  सद्भावना रखते है। उनपर किए गए अत्याचारों एवं जातिय संहार जैसे औपनिवेशिक बर्बरता का पुरजोर विरोध करते है। भारत में भी इस्लामिक आक्रमण एवं ब्रिटिश राज के कारण वास्तव में हमारे समाज का एक हिस्सा पिछड़ गया है। स्वाधीनता के पश्चात् संविधान में पांचवी अनुसूची और छटवी अनुसूची जैसे प्रावधानों से भारतीय जनजातियों के समाज जीवन एवं उनके सामाजिक एवं आर्थिक विकास के पहलुओं पर कार्य करने के प्रयास किए गए है।  पंचायत उपबंध (अनुसूचित क्षेत्रों पर विस्तार) अधिनियम, 1996, अनुसूचित जनजाति और अन्य परंपरागत वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम, 2006 आदि कानूनों के माध्यम से भारत सरकार द्वारा प्रयास किए जा रहे है। अभी और बहोत कुछ करना शेष है परन्तु मूलनिवासी दिवस जैसे अवसरों का हमारे ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक परिवेश में औचित्य नहीं है। भारत में मूलनिवासी दिवस जैसे कार्यक्रम का आयोजन अप्रासंगिक एवं अनुचित भी है। समुदायों के बिच कृत्रिम दरार और कलह के वातावरण को बढ़ावा देनेवाले ऐसे समारोहों को सिरे से नकारना हम सब का आवश्यक दाइत्व बनता है।

2021 से प्रति वर्ष 15 नवंबर को मनाया जाने वाला "जनजातीय गौरव दिवस" ​​वास्तव में, भारत के सामाजिक ताने-बाने को जीवित रखने में जनजाति समाज के योगदानों को मनाने का उत्सव का दिन है। भारतीय मूल्यों को अक्षुण्ण रखने में उनका साहस, शौर्य और बलिदान अतुलनीय है।