Friday, 26 December 2025

वनयोगी बालासाहेब देशपांडे और वनवासी कल्याण आश्रम की स्थापना

 


26 दिसंबर भारत में जनजातीय कल्याण के इतिहास में एक अत्यंत महत्वपूर्ण तिथि है। यह वनयोगी रमाकांत केशव देशपांडे, जिन्हें लोकप्रिय रूप से बालासाहेब देशपांडे के नाम से जाना जाता है, की जयंती है और साथ ही वनवासी कल्याण आश्रम के स्थापना दिवस के रूप में भी मनाई जाती है, जिसकी स्थापना 26 दिसंबर 1952 को हुई थी। इस अवसर पर उस दूरदर्शी समाज सुधारक के जीवन और दृष्टि को स्मरण करना प्रासंगिक है, जिनके कार्यों ने आज भारत के सबसे बड़े जनजातीय कल्याण के लिए कार्यरत गैर-सरकारी संगठन की नींव रखी।

स्वतंत्रता के आसपास के वर्षों में, वर्तमान छत्तीसगढ़ और झारखंड के वनाच्छादित एवं दूरस्थ क्षेत्र देश के सबसे पिछड़े इलाकों में गिने जाते थे। आज भी इन क्षेत्रों मे प्रमुखता से भारत जनजाति समाज निवास करता है I गरीबी, निरक्षरता, स्वास्थ्य सुविधाओं का अभाव और प्रशासन की न्यूनतम उपस्थिति वहाँ के जनजीवन की पहचान थी और कम-अधिक प्रमाण मे वर्तमान भी कोई बड़ा बदलाव नहीं हुआ है। इस शून्य का लाभ ईसाई मिशनरी संगठनों ने उठाया, जिन्होंने विद्यालयों और कल्याणकारी गतिविधियों के माध्यम से अपनी संस्थागत उपस्थिति बढ़ाई। समय के साथ इसका परिणाम व्यापक धर्मांतरण के रूप में सामने आया, जिससे जनजातीय समाज अपनी स्वदेशी सांस्कृतिक परंपराओं और राष्ट्रीय चेतना से दूर होता चला गया।

इस स्थिति की गंभीरता तब स्पष्ट हुई जब पंडित रविशंकर शुक्ल, तत्कालीन मध्य प्रांत के मुख्यमंत्री, ने 1940 के दशक के उत्तरार्ध में जनजातीय क्षेत्रों का दौरा किया। जशपुर में उनका अनुभव विशेष रूप से चौंकाने वाला रहा, जहाँ उनका स्वागत काले झंडों के साथ किया गया। इस यात्रा ने उन्हें क्षेत्र की गहरी पिछड़ेपन की स्थिति और मिशनरी प्रभाव के व्यापक प्रसार से अवगत कराया। समस्या की जड़ों को समझते हुए उन्होंने ठक्कर बापा, एक प्रमुख गांधीवादी और जनजातीय क्षेत्रों में कार्यरत समाजसेवी, का मार्गदर्शन लिया।

इन्हीं प्रयासों के तहत सामाजिक कल्याण विभाग को सुदृढ़ किया गया और बालासाहेब देशपांडे ने 1948 में इसमें कार्यभार ग्रहण किया। उन्हें जनजातीय विकास योजना के अंतर्गत जशपुर क्षेत्र में क्षेत्रीय अधिकारी के रूप में नियुक्त किया गया। इस दौरान उन्हें जनजातीय समाज की वास्तविक समस्याओं का प्रत्यक्ष अनुभव हुआ। उन्होंने देखा कि मिशनरी संस्थाएँ केवल सेवा कार्य तक सीमित नहीं थीं, बल्कि पारंपरिक सामाजिक और सांस्कृतिक संबंधों को भी कमजोर कर रही थीं। बालासाहेब का स्पष्ट मत था कि जनजातीय विकास ऐसे मूल्यों पर आधारित होना चाहिए जो उनकी सभ्यतागत परंपराओं से जुड़े हों, कि बाहरी ढाँचों पर।

जनवरी 1951 में ठक्कर बापा के निधन के बाद, प्रशासनिक सीमाओं और दबावों के कारण बालासाहेब के लिए जमीनी स्तर पर प्रभावी कार्य करना कठिन होता गया। इन्हीं परिस्थितियों ने उन्हें एक ऐसे स्वतंत्र मंच की आवश्यकता का अहसास कराया, जहाँ वे पूर्ण समर्पण और स्वतंत्रता के साथ जनजातीय समाज के लिए कार्य कर सकें।

परिणामस्वरूप, 26 दिसंबर 1952 को जशपुर (वर्तमान छत्तीसगढ़) में वनवासी कल्याण आश्रम की स्थापना हुई। आश्रम का उद्देश्य मिशनरी संस्थाओं के विकल्प के रूप में शिक्षा, स्वास्थ्य, सामाजिक सेवा और सांस्कृतिक संरक्षण के क्षेत्रों में कार्य करना था। शीघ्र ही रायगढ़ और सरगुजा जैसे जनजातीय बहुल जिलों में विद्यालयों की स्थापना की गई।

संस्था का विकास निरंतर और सुदृढ़ होता गया। 1963 में वनवासी कल्याण आश्रम के स्थायी कार्यालय का उद्घाटन पूजनीय गोलवलकर गुरुजी, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तत्कालीन सरसंघचालक  द्वारा किया गया, जिसने संगठन को एक मजबूत संस्थागत आधार प्रदान किया।

इस विस्तार यात्रा का एक महत्वपूर्ण पक्ष बालासाहेब देशपांडे और श्री जगदेव राम ओरांव जी के बीच का संबंध रहा, जो भारत की प्राचीन गुरुशिष्य परंपरा का प्रतीक था। जगदेव राम जी ने क्रमशः संगठन में नेतृत्व की जिम्मेदारियाँ संभालीं—1985 में राष्ट्रीय समिति के सदस्य बने, 1987 में उपाध्यक्ष नियुक्त हुए और 1993 में कटक में आयोजित राष्ट्रीय अधिवेशन में उन्हें राष्ट्रीय कार्यकारी अध्यक्ष नामित किया गया, जिससे संगठन की वैचारिक और नेतृत्वगत निरंतरता सुनिश्चित हुई।

1995 में बालासाहेब देशपांडे के निधन के बाद भी उनके द्वारा स्थापित आंदोलन निरंतर सक्रिय है। आज वनवासी कल्याण आश्रम देश के अनेक राज्यों में विद्यालयों, छात्रावासों, स्वास्थ्य सेवाओं, स्वावलंबन कार्यक्रमों और सांस्कृतिक गतिविधियों के माध्यम से कार्य कर रहा है। इसका कार्य मॉडल यह दर्शाता है कि भौतिक विकास और सांस्कृतिक गरिमा एक-दूसरे के पूरक हो सकते हैं।

आज के दिवस, वनयोगी बालासाहेब देशपांडे जी के केवल स्मरण मात्र का दिवस नहीं है अपितु उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए इस बात का भी स्मरण रहें कि सतत विकास तभी संभव है जब वह पहचान, परंपरा और सामुदायिक विवेक का सम्मान करे। उनके जीवन और कार्य आज भी भारत के जनजातीय क्षेत्रों में समावेशी विकास, सांस्कृतिक संरक्षण और सामाजिक सौहार्द की दिशा में मार्गदर्शन प्रदान करते हैं।